जमैथा का खरबूजा! इस लज्जतदार फल जनपद ही नहीं, वरन पूरे पूर्वांचल में स्वाद के मसले पर अपनी अलग पहचान बनायी है। आज इस लाजवाब फल को प्रकृति की बुरी नजर लग गयी है। शायद यही वजह है कि अब न यहां के खरबूजे में वह पहले वाली मिठास रह गयी और न ही इसकी बोआई के प्रति किसानों का कोई खास रुझान।
पहले जहां एक दिन की पैदावार प्रति बीघा 8 मन हुआ करती थी, वहीं आज यह घटकर 3 मन के आस-पास पहुंच गयी है। बताते चलें कि वर्ष 1930 के आस-पास जब जनपद के सिरकोनी विकास खण्ड अंतर्गत जमैथा गांव के लोगों ने पहली बार खरबूजा की खेती की थी तो शायद यह सोचा भी नहीं रहा होगा कि उत्तर प्रदेश के पटल पर गांव की पहचान इसी फल से ही बनेगी। यह खरबूजा जनपद ही नहीं, बल्कि पूरे पूर्वांचल में निर्यात किया जाता है। इस फल के मिठास का असली राज का पता लगाने की कोशिश करें तो पायेंगे कि किसानों द्वारा बुआई में जैविक खादों का ज्यादातर इस्तेमाल करना है।
गांव के बुजुर्ग किसानों का कहना है बोआई के पूर्व काश्तकार इन खाली पड़े खेतों में पशुओं के गोबर व मूत्र को जैविक खाद के रुप में इस्तेमाल करते हैं। फरवरी माह के पहले सप्ताह से करीब एक माह तक खरबूजों की बोआई का कार्यक्रम चलता है। औसतन प्रति बीघा के हिसाब से 1 कुंतल खरी, 20 किग्रा. डाई तथा 1 किग्रा. खरबूजे का बीज प्रयोग में लाया जाता है। पहले यह शानदार फल यहां करीब 1 मई के बाद से ही खेतो से निकलने लगता था।
अब वक्त ने ऐसा करवट लिया कि आज काश्तकार बोआई का कार्य अप्रैल माह से आरम्भ करते हैं और उत्पादन जून माह तक होता है। सबसे बड़ी बात न खेत खाली छोड़े जा रहे है और न ही जैविक खादों की तरफ ही ध्यान दिया जा रहा है। कुल मिलाकर किसानों की आय प्रति बीघा के हिसाब से 20 से 25 हजार के आस-पास इस समय हो रही है। यह पहले 40 से 60 हजार रुपये के करीब हुआ करती थी। यही हाल रहा तो निश्चित रुप से यह शानदार फल लोगों के पहुंच से काफी दूर हो जायेगा।
इस सम्बन्ध में पूछे जाने पर उपनिदेशक कृषि प्रसार एसएन दुबे का कहना है कि जमैथा की खरबूजे की मिठास तभी कायम रह सकती है जब पुरवईया हवा चले। इसकी पैदावार बलुई मिट्टी में होती है। जो नदी का पानी बढ़ने या दो-तीन साल में आने वाली बाढ़ के सहारे खेतों में पहुंचती है। ऐसा न होने पर खरबूजे की मिठास पर असर पड़ता है।