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महर्षि यमदग्नि की तपोस्थली जौनपुर बन सकता है सैलानियों की पहली पसंद |

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महर्षि यमदग्नि की तपोस्थली व शार्की सल्तनत की राजधानी कहा जाने वाला प्राचीनकाल से शैक्षिक व ऐतिहासिक दृष्टि से समृद्धिशाली शिराजे हिन्द जौनपुर आज भी अपने ऐतिहासिक एवं नक्काशीदार इमारतों के कारण न केवल प्रदेश में बल्कि पूरे भारत वर्ष में अपना एक अलग वजूद रखता है | बड़े पैमाने परदेशी-विदेशी पर्यटकों को आकर्षित करने की ताक़त इस शहर में आज भी है। नगर के ऐतिहासिक स्थलों में प्रमुख रूप से अटाला मस्जिद, शाहीकिला, शाही पुल, झंझरी मस्जिद, बड़ी मस्जिद, चार अंगुली मस्जिद, लाल दरवाजा, शीतला धाम चौकिया, महर्षि यमदग्नितपोस्थल, राजा जयचंद  के किले का भग्नावशेष आदि आजभी अपने ऐतिहासिक स्वरूप एवं सुन्दरता के साथ मौजूद है।यहाँ के ऐतिहासिक स्थलों के करार बियर का मंदिर,शीतला चौकिय, मैहर देवी का मदिर, बड़े हनुमान का मंदिर ,शाही किला, बड़ी मस्जिद, अटला मस्जिद , खालिस मुखलिसमस्जिद,झझरी मस्‍जि‍द-, लाल दरवाज़ा, शाह पंजा ,हमजापुर का इमामबाडा ,सदर इमामबाडा ,बारादरी ,मकबरा ,राजा श्री कृष्‍ण दत्‍त द्वारा धर्मापुर में निर्मित शिवमंदिर, नगरस्‍थ हिन्‍दी भवन, केराकत में काली मंदिर, हर्षकालीन शिवलिंग गोमतेश्‍वर महादेव (केराकत), वन विहार, परमहंस का समाधि स्‍थल(ग्राम औका, धनियामउ), गौरीशंकर मंदिर (सुजानगंज), गुरूद्वारा(रासमंडल), हनुमान मंदिर(रासमंडल),शारदा मंदिर(परमानतपुर), विजेथुआ महावीर, कबीर मठ (बडैया मडियाहू) आदि महत्‍वपूर्ण है।जौनपुर शहर की 6 फीट लम्बी मूली ,जमैथा का खरबूजाबहुत मशहूर है | यहाँ की बेनीराम की इमरती देश विदेश तक जाती है | तम्बाकू और मक्के की खेती यहाँ अधिक होती है |सूती कपडे ,इत्र और चमेली के तेल के उद्योग के लिए जौनपुर बहुत प्रसिद्ध है |


देश की सांस्कृतिक राजधानी के रूप में प्रचलित काशी जनपद के निकट होने के कारण अक्सर पर्यटक यहाँ का रुख भी करते हैं और इसकी सराहना भी करते हैं लेकिन स्तरीय सुविधाओं के अभाव में पर्यटक न तो यहाँ ठीक से घूम पाते हैं और न ही यहाँ कुछ दिनों तक रह पाते हैं | हालांकि जनपद को पर्यटक स्थल के रूप में घोषित कराने का प्रयास कुछ राजनेताओं व जिलाधिकारियों द्वारा किया गया लेकिन वे प्रयास फिलहाल ना काफी ही साबित हुये।ऐसा कहा जाता है कि जौनपुर में इब्राहिमशाह शर्की के समय में इरान से लगभग एक हज़ार आलिम (विद्वान) आये थे जिन्होंने पूरे भारत में जौनपुर को शिक्षा का केंद्र बना दिया था | उस समय न सिर्फ भारत से बल्कि तमाम पड़ोसी देशों से लोग 'उर्दू'की शिक्षा ग्रहण करने के लिए जौनपुर का रूख करने लगे और वही समय था जब मुग़ल बादशाह शाहजहाँ ने जौनपुर को 'शिराज-ए-हिंद'की उपाधि से नवाज़ा |१७वीं एवं १८वीं शताब्दी में जौनपुर की ख्याति 'सूती वस्त्र'और 'महकते इत्र'के लिए पूरे देश में ऐसी फैली कि आज भी कहीं 'इत्र'का जिक्र आने पर जौनपुर का नाम जरूर लिया जाता है | जौनपुर जहाँ १५वीं शताब्दी में 'महादेवी आन्दोलन'में अगुवा बना वहीँ शर्की शासक 'हुसैन शाह शर्की'के समय में 'रागो हुसैनी' , 'कान्हारा'एवं 'टोडी'जैसी रागिनियों का उद्गम स्थान भी बना | किवदंती है कि प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में 'रोटी और कमल'रुपी प्रतीक की योजना जौनपुर के मौलाना करामात अली की ही थी |आज जौनपुरमें गंगा जमुनी तहजीब और साम्‍प्रदायि‍क सदभावको महसूस किया जा सकता है | पुराने मंदिरों, मस्जिदोंऔर इमामबाड़ोंने इसे हर तरफ से सजाया हुआ है | दशहरा दिवाली में नवरात्री,दुर्गा पूजा और रमजान ,मुहर्रम में इफ्तारी और अज़ादारी का माहोल रहता है और ऐसा लगता है पूरा जौनपुर इसके रंग में रंग गया है|


महाभारत काल में वर्णित महर्षि यमदग्नि की तपोस्थली जमैथा ग्राम जहां परशुराम ने धर्नुविद्या का प्रशिक्षण लिया था। गोमती नदी तट परस्थित वह स्थल आज भी क्षेत्रवासियों के आस्था का केन्द्र बिन्दु बना हुआ है। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि उक्त स्थल के समुचित विकास को कौन कहे वहां तक आने-जाने की सुगम व्यवस्था आज तक नहीं की जा सकी है|मार्कण्डेय पुराण में उल्लिखित 'शीतले तु जगन्माता, शीतले तु जगत्पिता, शीतले तु जगद्धात्री-शीतलाय नमोनम:'से शीतला देवी की ऐतिहासिकता का पता चलता है। शीतला माता का मंदिर स्थानीय व दूरदराज क्षेत्रों से प्रतिवर्ष आने वाले हजारों श्रद्घालु पर्यटकों के अटूट आस्था व विश्वास काकेन्द्र बिन्दु बना हुआ है लेकिन इसके भी सौन्दर्यीकरण की और लोगों का ध्यान नहीं जाता और यदि कभी जाता भी है तो सरकारी फाइलों में दब के रह जाता है |


शहर को उत्तरी व दक्षिणी दो भागों में बांटने वाले इस पुल का निर्माण मध्यकाल में मुगल सम्राट अकबर के आदेशानुसार मुनइम खानखानाने सन् 1564 ई. में आरम्भ कराया था जो 4 वर्ष बाद सन् 1568 ई. में बनकर तैयार हुआ। सम्पूर्ण शाही पुल 654 फिट लम्बा तथा 26 फिटचौड़ा है, जिसमें 15 मेहराबें है, जिनके संधिस्थलपर गुमटियां निर्मित है। बारावफात, दुर्गापूजा व दशहरा आदि अवसरों पर सजी-धजीगुमटियों वाले इससम्पूर्ण शाही पुल की अनुपम छटा देखते ही बनती है। इस ऐतिहासिक पुल में वैज्ञानिक कला का समावेश किया गया है। स्नानागृह से आसन्न दूसरे ताखे के वृत्तपर दो मछलियां बनी हुई है। यदि इन मछलियों को दाहिने से अवलोकन किया जाय तो बायीं ओर की मछली सेहरेदार कुछ सफेदी लिये हुए दृष्टिगोचर होती है किन्तु दाहिने तरफ की बिल्कुल सपाट और हलकी गुलाबीरंग की दिखाई पड़ती है। यदि इन मछलियों को बायीं ओर से देखा जाय तो दाहिने ओर की मछली से हरेदारतथा बाई ओर की सपाट दिखाई पड़ती है। इस पुल की महत्वपूर्ण वैज्ञानिक कला की यह विशेषता अत्यन्तदुर्लभ है।



जौनपुर शहर के उत्तरी क्षेत्र में स्थित शाही किला मध्य काल में शर्की सल्तनत की ताकत का केन्द्र रहा है| विन्ध्याचल से नेपाल,बंगाल और कन्नौज से उड़ीसा तक फैले साम्राज्य की देखरेख करने वाली शर्की फौजों का मुख्य नियंत्रण यहीं से होता था.पुराने केरारकोट को ध्वस्त करके शाही किला का निर्माण फ़िरोज शाह ने करवाया था.स्थापत्य की दृष्टि से यह चतुर्भुजी है और पत्थरों की दीवार से घिरा हुआ है.किले के अन्दर तुर्की शैली का एक स्नानागार है जिसका निर्माण इब्राहिम शाह ने कराया था|


गूजर ताल- खेतासराय से दो मील पश्चिम में प्रसिद्ध गूजरताल है, जिसमें आज कल मत्‍स्‍य पालन कार्य हो रहा है। इसका चतुर्दिक वातावरण सुरम्‍य प्राकृतिक है। अटाला मस्जिद, बड़ी मस्जिद,लाल दरवाज़ा, राजा  जौनपुर की कोठी,शाही पुल, राजा सिग्रमाऊ की कोठी, इमाम पुर का इमामबाडा, सदर इमाम बाड़ा, चार ऊँगली मस्जिद, बरदारी, कलीचाबाद का मकबरा, इत्यादि बहुत से आलिशान इमारतें इस शहर की शोभा आज भी बाधा रही हैं | उपर्युक्‍त इमारतों के अलावा यहॉ मुनइम खानखाना द्वारा निर्मित शाही पुल पर स्थित शेर की मस्जिद तथा इलाहाबाद राजमार्ग पर स्थित ईदगाह, मोहम्‍मद शाह के जमाने में निर्मित सदर इमामबाड़ा, जलालपुर का पुल, मडियाहू का जामा मस्जिद, राजा श्री कृष्‍ण दत्‍त द्वारा धर्मापुर में निर्मित शिवमंदिर, नगरस्‍थ हिन्‍दी भवन, केराकत में काली मंदिर, हर्षकालीन शिवलिंग गोमतेश्‍वर महादेव (केराकत), वन विहार, परमहंस का समाधि स्‍थल(ग्राम औका, धनियामउ), गौरीशंकर मंदिर (सुजानगंज), गुरूद्वारा(रासमंडल), हनुमान मंदिर(रासमंडल), शारदा मंदिर(परमानतपुर), विजेथुआ महावीर, कबीर मठ (बडैया मडियाहू) आदि महत्‍वपूर्ण है।

डर है कि कहीं हिंद का 'शिराज'इतिहास के पन्नों में ही दफ़न होकर न रह जाये | बकौल इकबाल साहब ............


न संभलोगे तो मिट जाओगे ऐ हिन्दोस्तां वालों ;

तुम्हारी दास्ताँ भी न होगी इन दास्तानों में |




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