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काकोरी के इन शहीद क्रांतिकारियों की यादें सीधे काकोरी से |

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'मालिक तेरी रजा रहे और तू ही तू रहे, बाकी न मैं रहूं न मेरी आरजू रहे। ..बिस्मिल 
भारत की आज़ादी के शहीदों की चिताओं पे मेले अब कम ही लगा करते हैं  लकिन कुछ जगहों पे उनकी यादें आज भी बाकी है | ऐसी ही एक जगह है काकोरी | बस मौक़ा था काकोरी कांड के शहीदों की तारिख का तो सोंचा की चलो आज उस स्थान पे जा के उन शहीदों को श्रधान्जती अर्पित की जाय जिन्होंने अपने देश को आजादी दिलाने के लिए अपनी जान की भी परवाह नहीं की |

 https://www.facebook.com/hamarajaunpur/9 अगस्त 1925 की रात चंद्रशेखर आजाद, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, राजेंद्र लाहिड़ी और रोशन सिंह सहित 10 क्रांतिकारियों ने लखनऊ से कुछ दूरी पर काकोरी और आलमनगर के बीच ट्रेन में ले जाए जा रहे सरकारी खजाने को लूट लिया। खजाना लूटने में तो क्रांतिकारी सफल हुए लेकिन पुलिस ने उन्हें खोज निकाला। चंद्रशेखर आजाद तो पुलिस के हाथ नहीं आए। बाकी कुछ क्रांतिकारियों को 4 साल की कैद और कुछ को काला पानी(उम्र कैद) की सजा सुनाई गई। राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, राजेंद्र लाहिड़ी और रोशन सिंह को फांसी की सजा सुनाई गई।


राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान और रोशन सिंह को  19 दिसंबर 1927 को फांसी दे दी गई। फांसी के दिन जेल के दरोगा ने रोशन को पुकार तो वे कपड़े पहनकर तैयार हो गए। धर्मग्रंथ गीता बगल में दबाई और 'ओम'का जाप करते हुए फांसी के तख्ते की ओर चल दिए। तख्ते पर पहुंच कर उन्होंने बुलन्द आवाज में दो नारे लगाए, 'भारत माता की जय', 'वन्देमातरम'और मुस्कराते हुए फांसी के फंदे पर झूल गए।

राजेंद्र लाहिड़ी के लिए भी फांसी के लिए 19 दिसंबर 1927 की तारीख तय हुई, लेकिन राजेंद्र लाहिड़ी को इससे दो दिन पहले ही 17 दिसंबर को गोंडा जेल में फांसी दे दी गई|


लखनऊ जेल में काकोरी षड्यन्त्र के सभी अभियुक्त कैद थे। केस चल रहा था इसी दौरान बसन्त पंचमी का त्यौहार आ गया। सब क्रान्तिकारियों ने मिलकर तय किया कि कल बसन्त पंचमी के दिन हम सभी सर पर पीली टोपी और हाथ में पीला रूमाल लेकर कोर्ट चलेंगे। उन्होंने अपने नेता राम प्रसाद 'बिस्मिल'से कहा- "पण्डित जी! कल के लिये कोई फड़कती हुई कविता लिखिये, उसे हम सब मिलकर गायेंगे।"अगले दिन कविता तैयार थी

मेरा रँग दे बसन्ती चोला....
हो मेरा रँग दे बसन्ती चोला....

इसी रंग में रँग के शिवा ने माँ का बन्धन खोला,
यही रंग हल्दीघाटी में था प्रताप ने घोला;
नव बसन्त में भारत के हित वीरों का यह टोला,
किस मस्ती से पहन के निकला यह बासन्ती चोला।

मेरा रँग दे बसन्ती चोला....
हो मेरा रँग दे बसन्ती चोला....

रँग दे बसन्ती में भगतसिंह का योगदान
अमर शहीद भगत सिंह जिन दिनों लाहौर जेल में बन्द थे तो उन्होंने इस गीत में ये पंक्तियाँ और जोड़ी थीं:

इसी रंग में बिस्मिल जी ने "वन्दे-मातरम्"बोला,
यही रंग अशफाक को भाया उनका दिल भी डोला;
इसी रंग को हम मस्तों ने, हम मस्तों ने;
दूर फिरंगी को करने को, को करने को;
लहू में अपने घोला।

मेरा रँग दे बसन्ती चोला....
हो मेरा रँग दे बसन्ती चोला....

माय! रँग दे बसन्ती चोला....

हो माय! रँग दे बसन्ती चोला....
मेरा रँग दे बसन्ती चोला....

राम प्रसाद 'बिस्मिल'बिस्मिल अज़ीमाबादी की यह गज़ल क्रान्तिकारी जेल से पुलिस की लारी में अदालत जाते हुए, अदालत में मजिस्ट्रेट को चिढाते हुए व अदालत से लौटकर वापस जेल आते हुए कोरस के रूप में गाया करते थे। बिस्मिल के बलिदान के बाद तो यह रचना सभी क्रान्तिकारियों का मन्त्र बन गयी। जितनी रचना यहाँ दी जा रही है वे लोग उतनी ही गाते थे।

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,
देखना है जोर कितना बाजुए-क़ातिल में है !

वक़्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमाँ !
हम अभी से क्या बताएँ क्या हमारे दिल में है !

खीँच कर लाई है हमको क़त्ल होने की उम्म्मीद,
आशिकों का आज जमघट कूच-ए-क़ातिल में है !

ऐ शहीदे-मुल्को-मिल्लत हम तेरे ऊपर निसार,
अब तेरी हिम्मत का चर्चा ग़ैर की महफ़िल में है !

अब न अगले बल्वले हैं और न अरमानों की भीड़,
सिर्फ मिट जाने की हसरत अब दिले-'बिस्मिल'में है !
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