जौनपुर एक ऐतिहासिक शहर है जिसकी जड़ें बहुत गहरी है जिसका तुग़लक़ के बाद का इतिहास तो लोगों ने याद रखा लेकिन पहले का इतिहास भुला दिया लेकिन यहां समाज पे उसका असर आज भी देखा जा सकता है |शोध बताते हैं की इस जौनपुर में इक्षवाकु वश की जड़ें बहुत गहरी थी जिसके अंतर्गत राजा रामचंद्र और गौतम बुध दोनों आते हैं |
जमैथा जौनपुर के आस पास आपको रामचंद्र जी के आगमनऔर शाहगंज जौनपुर में वनवास त्याग करते हुए सीता जी द्वारा चूड़ियां खरीदने बातें सुनने को मिला करती हैं और वे स्थान भी चिन्हित किये गए हैं जिन से यह कथाएं जुडी हुयी है | इसी प्रकार बौद्ध संभ्यता की मौजूदगी की निशानियां भी यहां आज मौजूद हैं जो मछली शहर से ले के गोमती किनारे तक मिला करती हैं | गज सिंह मूर्ती जो शाही पुल पे लगी है बहुत कुछ बौद्ध युग की कहानियां कहती नज़र आती है |
इसके बाद जाफराबाद और जौनपुर में अनगिनत हिन्दू और मुस्लिम राजाओं की गाथाएं और सुबूत यहां मौजूद हैं जिन्हे सामने लाने की आवश्यकता आज भी है |
नए सिरे से जो अवशेष मिलते हैं उनके अनुसार इस शहर की स्थापना 14वीं शताब्दी (1359 ) में फिरोज तुगलक ने अपने चचेरे भाई सुल्तान मुहम्मद की याद में की थी। सुल्तान मुहम्मद का वास्तविक नाम जौना खां था। इसी कारण इस शहर का नाम जौनपुर रखा गया।
उसके बाद शार्की राज्य आया और उस दौर में यहाँ एक मस्जिद ,स्नान गृह और मदरसा बना जिसका दौर १३६७ ई कहा जाता है और इसके शिलालेख में दर्ज है |
शार्की दौर के बाद मुग़ल काल आया और इस किले के मुख्य द्वार का निर्माण सन् 1567 ई. में सम्राट अकबर ने कराया था। और इस गेट के दरवाज़े पे एक खम्बा लगा है जिसे बादशाह शाह आलम के कोतवाल १७६७ ईस्वी (११८० हिजरी ) में लगवाया था और इस् पे लिखा शिलालेख यह बताता है की उस समय यहाँ पे हिन्दू थे जो राम गंगा त्रिवेणी की क़सम खाते थे और मुसलमान में शिया और सुन्नी दोनों थे |
इसके बाद नवाबों का दौर आया यह सन १८५७ से पूर्व ही राजा इदारत जहां के हाथ में रहा और १८५७ में अंग्रेजों के खिलाफ पहली जनक्रांति के युद्ध में इसमें बहुत कुछ तोड़ फोड़ हुयी जिसमे इस किले की पश्चिम की दीवार ध्वस्त हो गयी और तब से आज तक यह ऐसा ही बदहाल है |
मैंने इस लेख के जौनपुर के इतिहास को क्रमवार सामने लाने की कोशिश की है जिस से केवल इतिहासकार ही नहीं बल्कि एक आम आदमी भी अपने जौनपुर के इतिहास को आसानी से समझ सके | विस्तार से इनके बारे में इनसे सम्बंधित लेखों में समझाया गया है जिनके लिंक साथ में दिए गए हैं |
इसके बाद यहाँ पे अयोध्या के राजा दशरथ और श्री रामचंद्र के समकालीन का इतिहास भी मिलता है | जौनपुर से केवल ४ किलोमीटर की दूरी पे एक गाँव है जमैथा जो महार्षि यमदग्नि की तपोस्थली थी | महार्षि यमदग्नि के पुत्र परशुराम थे जिन्हें भगवन विष्णु का छठवां अवतार माना जाता है| इतिहास कारों में एक सहमती तो नहीं लेकिन एक मत यह भी है की उस समय जौनपुर का नाम यमदग्निपुर था और यह इलाका "अयोध्यापुरम"के नाम से जाना जाता था |
राजा दशरथ और श्री रामचंद्र के समकालीन का इतिहास भी मिलता है जौनपुर में | आगे पढ़ने के लिए क्लिक करें

जौनपुर शाहगंज भरत मिलाप के पश्चात पूरे सप्ताह तक चलने वाला नगर का प्रसिद्ध ऐतिहासिक चूड़ी मेला रविवार से शुरू हो गया। पहले दिन ही मेले में महिलाओं की भारी भीड़ उमड़ पड़ी। महिलाओं ने रंग-बिरंगी चूड़ियों सहित अन्य सामानों की खरीदारी की। यहां चूड़ी मेला 152 वर्षों से लगातार लगता चला आ रहा है।
शाहगंज का प्रसिद्ध ऐतिहासिक चूड़ी मेला याद है श्री राम और माता सीता वनवास की |आगे पढ़ने के लिए क्लिक करें
शाही पुल पे स्थित "गज सिंह मूर्ती" को लोग वर्षों से देख रहे हैं लेकिन इसका सही इतिहास आज भी किसी को नहीं पता बस लोगों के बीच बहुत सी किंवदंतियाँ है जो एक दुसरे से लोग बताया करते हैं | इतिहासकारों ने भी इसके बारे में लिखा जैसे जौनपुर नामा में लिखा गया की यह बौध मंदिर के द्वार पे लगा हुआ था जिसे अपनी विजय का प्रतीक बौध मानते थे | इस बात में सच्चाई की सम्भावना देख जा सकती है |
बौद्ध समय की गज सिंह मूर्ती का इतिहास समझने के लिए यह लेख अवश्य पढ़ें | आगे पढ़ने के लिए क्लिक करें
जौनपुर से मोटर साइकिल से जफराबाद जाना अधिक सुविधाजनक रहता है यदि आपका इरादा वहाँ के प्राचीन इमारतों और स्थानो को देखने का ही हो तो । आज भी इस शहर में खुदाई करने पे नीचे एक पूरे शहर के बसे होने के निशानात मिलतेहैं | राजा जयचंद के आने के समय यह एक टूटा फूटा बौद्ध स्थलों का खंडहर था |

जौनपुर का शाही क़िला अपने मूल अकार में आज नहीं है । आगे पढ़ने के लिए क्लिक करें
नए सिरे से जो अवशेष मिलते हैं उनके अनुसार इस शहर की स्थापना 14वीं शताब्दी में फिरोज तुगलक ने अपने चचेरे भाई सुल्तान मुहम्मद की याद में की थी। सुल्तान मुहम्मद का वास्तविक नाम जौना खां था। इसी कारण इस शहर का नाम जौनपुर रखा गया।
इस ऐतिहासिक किले का र्निर्माण सन् 1362 ई. में फिरोजशाह तुगलक ने कराया। यह किला बहुत बार टूटा और बना और इसमें बने हुयी मस्जिदें द्वार, हमाम इत्यादि एक ही दौर के बने हुए नहीं हैं | यह किला अपने आप में जौनपुर का पूरा इतिहास समेटे हुए हैं जहां खुदाई में ईसा से छः सौ वर्ष पूर्व के खंडहर भी मिले फिर फ़िरोज़ शाह तुगलक के दौर में (सन् 1362 ई) इसका निर्माण हुआ
१४०२ इ में इब्राहिम शाह शर्क़ी राज्य का बादशाह बना जिसने १४४४ ई ० तक बहुत ही वैभव पूर्वक राज किया । शर्क़ी शासन काल में जौनपुर को "दरुसोरूर शिराज़ ऐ हिन्द "कहा जाता था । शर्क़ी में इब्राहिम शाह के बाद आने वाले बादशाह महमूद शाह, मुहम्मद शाह और हुसैन शाह ने भी जौनपुर को वही शान दिलायी जिसका नतीजा ये हुआ की ये राज्य भारत का सबसे बडा , खुशहाल और सुदर राज्य माना जाने लगा और इसकी राजधानी जौनपुर को शिराज़ ऐ हिन्दकहा जाने लगा ।इब्राहिम शाहने अपने समय में बहुत सी वाटिकाएं, भवन, दीवान खाने ,दरबार ख़ास, हौज़, पुल्ल मस्जिदें ,सड़के और सराय का निर्माण करवाया । लाल दरव्वाज़ा ,अटाला मस्जिद (तुग़लक़ के बाद ) झंझरी मस्जिद , खालिस मुख्लिस मस्जिद ,बड़ी मस्जिदइत्यादि का निर्माण भी शार्की समय में ही हुआ है ।
शार्की दौर के बाद मुग़ल काल आया और इस किले के मुख्य द्वार का निर्माण सन् 1567 ई. में सम्राट अकबर ने कराया था। और इस गेट के दरवाज़े पे एक खम्बा लगा है जिसे बादशाह शाह आलम के कोतवाल १७६७ ईस्वी (११८० हिजरी ) में लगवाया था और इस् पे लिखा शिलालेख यह बताता है की उस समय यहाँ पे हिन्दू थे जो राम गंगा त्रिवेणी की क़सम खाते थे और मुसलमान में शिया और सुन्नी दोनों थे |
इसके बाद यह सन १८५७ से पूर्व ही राजा इदारत जहां के हाथ में रहा और १८५७ में अंग्रेजों के खिलाफ पहली जनक्रांति के युद्ध में इसमें बहुत कुछ तोड़ फोड़ हुयी जिसमे इस किले की पश्चिम की दीवार ध्वस्त हो गयी और तब से आज तक यह ऐसा ही बदहाल है |

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