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कितना बदल गया रे गाँव |

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कितना बदल गया रे गाँव
अब वो मेरा गाँव नहीं है
ना तुलसी ना मंदिर अंगना
खुशियों की बौछार नहीं है
पीपल की वो छाँव नहीं है
गिद्ध बाज रहते थे जिस पर
तरुवर की पहचान नहीं है
कटे वृक्ष कुछ खेती कारण
बँटी है खेती नहीं निवारण
जल के बिन सूखा है सारा
कुआं व् सर वो प्यारा न्यारा
मोट – रहट की याद नहीं है
अब मोटर तो बिजली ना है
गाय बैल अब ना नंदी से
कार व् ट्रैक्टर द्वार खड़े हैं
एक अकेली चाची -ताई
बुढ़िया बूढ़े भार लिए हैं
नौजवान है भागे भागे
लुधिआना -पंजाब बसे हैं
नाते रिश्ते नहीं दीखते
मेले सा परिवार नहीं है
कुछ बच्चे हैं तेज यहाँ जो
ले ठेका -ठेके में जुटते
पञ्च -प्रधान से मिल के भाई
गली बनाते-पम्प लगाते -जेब भरे हैं
नेता संग कुछ तो घूमें
लहर चले जब वोटों की तो
एक “फसल” बस लोग काटते
“पेट” पकड़ मास इगारह घूम रहे
मेड काट -चकरोड काटते
वंजर कब्ज़ा रोज किये हैं
जिसकी लाठी भैंस है उसकी
कुछ वकील-साकार किये हैं
माँ की सुध -जब दर्द सताया
बेटा बड़ा -लौट घर आया
सौ साल की पड़ी निशानी

कच्चे घर को ठोकर मारी
धूल में अरमा पुरखों के
पक्का घर फिर वहीँ बनाया
चार दिनों परदेश गया
बच्चे उसके गाँव गाँव कर
पापा को जब मना लिए
कौवों की वे कांव कांव सुनने
लिए सपन कुछ गाँव में लौटे
क्या होता है भाई भाभी
चाचा ने फिर लाठी लेकर
पक्के घर से भगा दिया
होली के वे रंग नहीं थे
घर में पीड़ित लोग खड़े थे
शादी मुंडन भोज नहीं थे
पंगत में ना संग संग बैठे
कोंहड़ा पूड़ी दही को तरसे
ना ब्राह्मन के पूजा पाठ
तम्बू हलवाई भरमार
हॉट डाग चाउमिन देखो
बैल के जैसे मारे धक्के
मन चाहे जो ठूंस के भर लो
भर लो पेट मिला है मौका
उनतीस दिन का व्रत फिर रक्खा
गाँव की चौहद्दी डांका जो
डेव -हारिन माई को फिर
हमने किया प्रणाम
जूते चप्पल नहीं उतारे
बैठे गाड़ी- हाथ जोड़कर
बच्चों के संग संग –भाई- मेरे
रोती – दादी- उनकी -छोड़े
टाटा -बाय -बाय कह
चले शहर फिर दर्शन करने
जहाँ पे घी- रोटी है रक्खी
और आ गया “काल”
ये आँखों की देखी अपनी
हैं अपनी कडवी पहचान !!
कितना बदल गया रे गाँव
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर 

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