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आज खुल गए जौनपुर शाही क़िले से जुड़े सारे रहस्य|

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जौनपुर का शाही क़िला अपने मूल अकार में आज नहीं है ।

इस क़िले का निर्माण फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ ने जौनपुर आबाद करने के बाद १३६२ इ०  में किया । इसमें अलग अलग काल में परिवर्तन किये जाते रहे इसलिए इसका मूल अकार अब समझ में नहीं आता है । लेकिन आज भी ये क़िला बहुत ही भव्य और अच्छी हालत में है ।

शार्की बादशाहो ने क़िले के अंदर मिश्री ढंग की एक मस्जिद और तुर्की स्नानगृह का निर्माण करवाया । सिकंदर लोधी ने इस क़िले को बहुत नुकसान पहुंचाया लेकिन हुमांयू बादशाह ने इसकी मरम्मत बाबा जलयर बेग से करवाई । इस  क़िले में अकबर बादशाह अक्सर आया करता था और राजगद्दी पे भी बैठता था । जौनपुर के प्रबंधक मुनीम खानखाना ने नए सिरे से इसी बनवाया।

 शाही क़िले के गेट पे लगे खम्बे पे फारसी में क्या लिखा है । 

शाही क़िले के गेट पे ही एक खम्बा लगा है  जिसपे फारसी में कुछ लिखा है और बचपन से सुना जो उसपे लिखे वाक्यों को पढ़ लेगा खज़ाना पा जायगा ।


जौनपुर शाही किले का बाहरी हिस्सा जिसे मुइन खान खाना ने बाद में बनवाया था |

जौनपुर के भव्य शाही किले  का निर्माण  फि‍रोज शाह ने 1362 में कराया था और इसका इस्तेमाल केवल शाही फ़ौज के लिए किया जाता था |  इसके सामने के शानदार फाटक को मुनीम खां ने सुरक्षा की दृष्‍टि‍ से बनवाया था तथा इसे नीले एवं पीले पत्‍थरों से सजाया गया था।

इसी बाहरी फाटक में दाखिल होने के पहले एक 6 फीट लम्बा खम्बा है जो एक गोल से चबूतरे पे लगा हुआ है | बचपन से सुना करता था की इस खम्बे पे लिखी इबारत को जिसने पढ़ लिया उसे दुनिया का खजाना मिल जायेगा |

इस बार जब मैं जौनपुर पहुंचा और ऐसे ही एक दिन किले की तरफ से होता हुआ मित्र से मिलने जा रहा था तो नज़र उसी खम्बे पे पद गयी और बचपन की बात याद आ गयी | जब मैं खम्बे पे पहुंचा तो वहाँ फारसी में कुछ इबारत लिखी मिली | मेरे साथ मेरे मित्र जनाब कैसर साहब भी थे जो पर्शियन (फ़ारसी) के अच्छे जानकार भी हैं मैंने उन्ही से पुछा भाई आप क्या इसे पढ़ सकते हैं तो खजाना मिल जाएगा |

उन्होंने भी कोशिश की और बाद में ताज्जुब की इबारत साफ़ है और इसे पढना भी आसान फिल जहालत भरी बातें समाज में कैसे फैल गयीं की खजाने का पता लिखा है ?



इस 6 फीट के खम्बे पे 17 लाइन की इबारत लिखी हुयी है | ये  शिला लेख गोलाकार चबुतरे पे लगा हुआ है और उस पे फारसी मे कुछ लिखा हुआ  है | इस शिला लेख की लिखावट सन ११८० हिजरी की है | इसको सैयेद मुहम्मद बशीर खां क़िलेदार ने शाह आलम जलालुद्दीन बादशाह तथा नवाब वज़ीर के समय मे लगवाया था |


यदि आप फ़ारसी जानते हैं तो आप भी इसे आसानी से पढ़ सकते हैं |


सय्यद मुहम्मद बशीर खान ने यहा के शासक और कोतवाल ,फौजदार और निवासियो को चेतावनी दी कि जौनपुर की आय मे सैयदो  व बेवाओं  तथा उनसे संबंधित और दीन की सहायता हेतू जो धन निश्चित है उसमे कोई कमी ना की जाय | हिन्दुओ को राम गंगा और त्रिवेणी और मुसलमानो को खुदा व रसूल (स.अ व ) व पंजतन पाख ,सहाबा और चाहारदा मासूम और सुन्नी हजरात को चार यार की क़सम है कि यदि उन्होंने इसका पालन नहीं किया तो खुदा और रसूल की उसपे  धिक्कार होगी और प्रलय के दिन मुख पे कालिमा  लगी होगी तथा नर्क निवासियो की पंक्ती मे शामिल होगा | बारह रबिउल अव्वल  ११८० हिजरी को इस शुभ कार्य का पत्थर  सैयेद मुहम्मद बशीर खां क़िलेदार ने लगवाया  |


   

जौनपुर शाही क़िले की दो क़ब्रो का राज़ क्या है ?

१८५७ की आज़ादी की लड़ाई का जौनपुर से पहला क्रांतिकारी थे राजा इदारत जहा जो १८५७ में  जौनपुर ,आज़मगढ़ ,बनारस, बलिया, तथा मिर्ज़ापुर प्रबंधक थे ।  जब अंग्रेज़ों ने राजा इदारत जहां से मालग़ुज़ारी मांगी तो उन्हने इंकार कर दिया और कहा हमने दिल्ली के बादशाह बहादुर शाह ज़फर को  बादशाह स्वीकार कर लिया है और  से मालग़ुज़ारीउन्ही को दी जाएगी ।

इस अस्वीक्रति पे अंग्रेज़ों ने जौनपुर के शाही क़िले पे जो राजा इदारत जहां की सत्ता का केंद्र था उसपे हमला कर दिया । राजा इदारत जहां उस समय चेहल्लुम के सिलसिले में मुबारकपुर गए हुए थे लेकिन दीवान महताब राय से अंग्रेजी फौज का सामना हो गया जो बहुत बहादुरी से लड़े लेकिन बाद में क़ैद कर लिए गए । इस झड़प में बहुत से लोग शहीद  हुए जिनकी क़ब्रें आज भी क़िले में मिलती हैं ।

आप जैसे ही क़िले में दाखिल होते हैं तो आप को बाए तरफ क़िले के ऊपर पथ्थरो के बीच बनी एक क़ब्र दिखाई देती है जिसपे हरे रंग की चादर चढ़ी रहती है । जब भी  आप किसी से पूछे तो वो आपको यही बताएगा की कोई बाबा या सूफी की मज़ार है । 

क़ब्र जिसे आज दरबार  ऐ  शहीद के नाम  से जाना जाता है  इनका नाम मेहदी जहाँ था और  इनका सम्बन्ध राजा इदारत जहां के परिवार से था जो इसी  क़िले की फ़ौज के कमांडर इन चीफ थे ।



इस बारे में जब मैंने  जनाब अंजुम साहब से  पूछा तो उन्होंने बताया की  ये क़ब्र जिसे आज दरबार  ऐ  शहीद के नाम  से जाना जाता है  इनका नाम मेहदी जहाँ था और  इनका सम्बन्ध राजा इदारत जहां के परिवार से था जो इसी  क़िले की फ़ौज के कमांडर इन चीफ थे ।
 राजा अंजुम साहब ने बताया कि अंग्रेज़ो के हमले में जब ये दोनों कमांडर शहीद हो गए तो लोगो ने इन्हे क़ब्रिस्तान में ले जाने की कोशिश की लेकिन इनको हटा नहीं सके और मजबूर हो के क़िले के उसी हिस्से में दफ़न किया जहाँ ये शहीद हुए थे । 
 
दूसरी क़ब्र  जो क़िले के अंदरूनी हिस्से में मस्जिद के दाई सामने की ओर बनी है सफ़दर जहा की है जिनका रिश्ता भी राजा राजा इदारत जहां के परिवार से था और वो भी फ़ौज के कमांडर थे । 



जनाब अंजुम साहब, जिन्हे जौनपुर राजा अंजुम  के नाम से जानता है और इनके छोटे भाई जिन्हे  प्रिंस तनवीर शास्त्री के नाम से जानता है राजा इदारत जहां के खानदान से सम्बन्ध रखते है और जौनपुर में ही अटाला मस्जिद के  पास रहते हैं ।  जनाब राजा अंजुम और प्रिंस तनवीर शास्त्री साहब राजा इदारत जहां की सातवी नस्ल है ।


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