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Channel: हमारा जौनपुर हमारा गौरव हमारी पहचान
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दास्तान ए शजर

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बारहां फैले ज़मीं पर हजारों दरख़्त

और आंगन में खिली मेरी रात की रानी,

नन्हे गुलों में महकती बला की खुशबू

अन्दर बढ़ते क़दमो को रोक लेती है,

चांदनी से चमक रही नन्ही पत्तियां

खामोश संगीत में गाती हुई कहती हैं

ज़रा महसूस तो करो इस कुदरत को

अँधेरी रातों में भी मसरूफ इस तमाशे को

मुख़्तसर ज़िन्दगी का हसीन नज़ारा

 नजरो में आने से रह न जाए ,

इन दरख्तों के उभरे खामोश तनों में

कोई जज्बात भी बसते हैं क्या ,

किसी ज़िन्दगी की कोई झलक

खामोश मुजस्समों में बसती है क्या

जिस कुदरत के तुम करिश्मे हो ,

उसी की निशानी मैं भी हूँ ,

खामोश हूँ तो क्या हुआ ...

मेरी ख़ामोशी भी बोला करती है

कुदरत के कुछ अनछुए पहलुओं से

तुम्हे आशना करवाता चलूँ ,

जिन्हें तुम हमसे जुदा कर ले गए

वो टुकड़े भी कुछ बोलते हैं क्या
,
जिन कागजों पर तुम कलम घिसा करते हो,

वो दरअसल मेरा सूखा गोश्त है,

हमारी लाशों के सूखे टुकड़े

तुम्हारे घरों को बनाया करते हैं

कभी खिड़की तो कभी दरवाज़ा बन

तुम्हारी हिफाज़त में हर वक़्त,

कभी तुम्हारी शान ओ शौकत

तो कभी बेजां सहूलतों के नाम,

हम ब-ज़रिये अपनी लाशों के

तुम्हारा सब इंतज़ाम करते हैं

इस तोहफे के लिए हमारा कभी

एक शुक्रिया तो कहते जाओ

ए औलाद ए आदम
,
 ज़रा रुको तो सही

कहीं तुमसे कुछ खो ना जाए

(इमरान)

जौनपुर के विकास में रोड़ा बना राजनीती -राजन तिवारी

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लेखक  ( राजन तिवारी ) 
rajan15feb@gmail.com
8765339392
जौनपुर भारत के उत्तर प्रदेश राज्य का एक प्रमुख शहर एवं लोकसभा क्षेत्र है। मध्यकाल में शर्की शासकों की राजधानी रहा जौनपुर वाराणसी से 58 किमी. दूर है।  गोमती और सई मुख्य पैतृक नदियों हैं। इनके अलावा, वरुण, पिली और मयुर आदि छोटी नदिया हैं। मिट्टी मुख्य रूप से रेतीले, चिकनी बलुई हैं। जौनपुर अक्सर बाढ़ की आपदा से प्रभावित रहता है |

इस शहर की स्थापना 14वीं शताब्दी में फिरोज तुगलक ने अपने चचेरे भाई सुल्तान मुहम्मद की याद में की थी। सुल्तान मुहम्मद का वास्तविक नाम जौना खां था। इसी कारण इस शहर का नाम जौनपुर रखा गया। 1394 के आसपास मलिक सरवर ने जौनपुर को शर्की साम्राज्य के रूप में स्थापित किया। शर्की शासक कला प्रेमी थे। उनके काल में यहां अनेक मकबरों, मस्जिदों और मदरसों का निर्माण किया गया। यह शहर मुस्लिम संस्कृति और शिक्षा के केन्द्र के रूप में भी जाना जाता है। यहां की अनेक खूबसूरत इमारतें अपने अतीत की कहानियां कहती प्रतीत होती हैं। वर्तमान में यह शहर चमेली के तेल, तम्बाकू की पत्तियों, इमरती और स्वीटमीट के
लिए लिए प्रसिद्ध है।





शिराज़-ए-हिन्द कहे जाने वाले जौनपुर को आज गंदी राजनीती ने अपने चपेट में ले लिया है,आज विकास के नाम पर बड़े बड़े राजनेता अपनी रोटी सेक रहे है,जिले में बड़े बड़े पोस्टर-बैनर तो दिखते है पर जमीनी हकीकत कुछ और ही बाया करती है आज जौनपुर की सडको में गड्ढ़े नहीं गड्ढ़े में जौनपुर है, आज जौनपुर में बिजली का संकट है,जौनपुर आज भी कई छोटे-बड़े मूलभूत समस्याओ और चीजों से वंचित है,जौनपुर की बदहाली का एक छोटा सा उदहारण वहाँ के सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों से लगया जा सकता है इस देश में कई ऐसे छोटे शहर है जहाँ लोग जौनपुर आते और लोगो के साथ झूटे वायदे कर के चले जाते है.परन्तु 9 विधान सभा और 2 लोक सभा सीटो वाले जौनपुर सिर्फ इतिहास के पुराने पन्नो में सिमट कर रह गया है ये अपने हक और अधिकार के लिए तरस्ता तो जरुर है लेकिन अफ़सोस इस बात का है की कोई भी इसका सुद्ध तक लेने वाला नहीं है इसे या तो विडम्बना कहे या जौनपुर का दुर्भाग्य जो कभी ज्ञान का केंद्र हुआ करता था और आज के वर्तमान परिद्रीस्य में ये खुद अशिक्षा और बहुत से भौतिक संसाधनों की कमी से ग्रसित है| जिले के पिछडेपन का ताज़ा उदहारण देखने को तब मिलता है जब हमारे ही बच्चे बाहर जाकर अपने जौनपुर का नाम लेने से कतराते है |

जौनपुर में दो मुख्य रेलवे स्टेशन हैं, 1. जौनपुर जंक्शन, 2. जौनपुर सिटी स्टेशन। लेकिन दोनों ही स्टेशनो में कोई भी विकास का कार्य नहीं हुआ आज भी दोनों स्टेशन में मूल सुविधा की कमी है |  जिले का आर्थिक विकास मुख्य रूप से कृषि पर निर्भर है,पर यहाँ के किसान पानी से वंचित है जौनपुर जिला की जनसंख्या के तीन चौथाई कृषि पर निर्भर है। आज जिले का शिक्षा इस्तर बदहाल है किसी समय में यहाँ से कई छात्र सरकारी नौकरी में चयनित होते थे मगर आज हालत बात से बतर हो गयी है | अगर यही आलम रहा तो आने वाले दिनों में जौनपुर का
उपयोग सिर्फ वोट बैंक के इस्तमाल के लिए ही किया जायेगा |

.....लेखक राजन तिवारी
 https://www.facebook.com/jaunpurbazaar
लेखक के विचारों से हमारा जौनपुर टीम सहमत हो यह आवश्यक नहीं | | एडमिन

डायबिटीज के मरीज़ हाई रिस्क में आते हैं -स्वाइन फ्लू

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प्रिय मित्रों, देश में स्वाइन फ्लू के बारे में बहुत दहशत है, हर सर्दी जुखाम स्वाइन फ्लू नहीं होता ,इसके फैलने का मुख्य कारण अक्सर लंबा चला जाड़ा होता है | तापमान   बढ़ने के साथ ये स्वतः खत्म हो जाता है |

डायबिटीज के मरीज़ हाई रिस्क में आते हैं इसलिए निम्न बातों का ध्यान रखें!  ....... ......डॉ ऐ के तिवारी   











लाल दरवाज़े से जुडी कुछ सच्चाइयाँ जो बहुत कम लोग जानते हैं |

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लाल दरवाज़ा के नाम से मशहूर  मस्जिद जो बेगम गंज के इलाके में पड़ती है और मल्हनी पड़ाव की तरफ आते जाते लोग उसे हर दिन देखते हैं लेकिन यह बहुत कम लोगों को इसके बारे में जानकारी है | आज आपने सामने है इतिहास की परतों से निकालते गए ऐसे सत्य जो इस लाल दरवाज़े की मस्जिद को नेई पहचान दे सकते हैं |

 https://www.youtube.com/payameamnलाल दरवाज़ा के नाम से  जो मस्जिद आज जानी जाती है यह हकीकत में इसका नाम नहीं बल्कि इसके पास बीबी राजे का एक महल था जिसका दरवाज़ा लाल याकूत पथ्थर का बना था और वो दरवाज़ा पूरे शार्की राज्य में मशहूर था | उसी लाल दरवाज़े के नाम से इसे लोग पहचानने लगे जबकि लाल दरवाज़ा और यह मदरसा और मस्जिद शार्की क्वीन बीबी राजे का बनवाया हुआ है |
इस मस्जिद का अस्ल नाम मस्जिद सिपाहगाह है |

लाल दरवाज़े के पास एक मुहल्लाह सिपाह गाह है जिसे बीबी राजे ने बसाया था और वहाँ पे एक विहार महल और महिलाओ का कॉलेज १४४१ में बनवाया और उसके बाद यह लाल दरवाज़ा मस्जिद बनवाई | वो मदरसा तो आज मौजूद नहीं लेकिन लाल दरवाज़े के नाम पे मशहूर उसी मस्जिद में एक मदरसा है जो उसी मदरसा ऐ हुसैनिया के नाम से चलता है | इस लाल दरवाज़े मस्जिद के तीन गेट हैं जिसमे से पूर्व वाला गेट सबसे बड़ा है |





शाही भवनो में लाल दरवाज़ा नामक भवन बहुत अधिक प्रसिद्ध था जिसका केंद्रीय द्वार प्रशस्त तथा बहुत ही ऊंचा था । इसमें लगे हुए फाटक को एक व्यक्ति खोल भी नहीं सकता था ।  लाल दरवाज़ा भवन में ऐसे बहुमूल्य और अनुपम लाल रंग के पत्थर जोड़े गए थे जो रात्रि में हलकी सी भी रौशनी पाते ही जगमगा उठते थे । यही कारण था इसका नाम इसका नाम लाल दरवाज़ा प्रसिद्ध हो गया । इसके दरवाज़े पे क़ुरआन की आयतें लिखी हुयी थी । इसे भी इब्राहिम लोधी ने पूरा तोड़ दिया ।

शार्की समय में जौनपुर में १४०० से अधिक ज्ञानी , संत और सूफी का आगमन हुआ जिनमे से एक थे सय्यद अली दाऊद जिनकी शान में शार्की क्वीन बीबी राजे ने अपने लाल दरवाज़ा महल के पास ही यह मस्जिद सिपाहगाह और मदरसा हुसैनिया बनवाया जो विश्व प्रसिद्ध मदरसा था | सय्यद अली दाऊद  का पुराना घर सिपाहगाह में था जिसके निशाँ आज भी मौजूद है और उनकी कब्र सदल्ली पुर इलाके में मौजूद है | सय्यद अली दाऊद  के घराने वाले आज भी पानदरीबा में रहते हैं |

 https://www.youtube.com/user/payameamn
जौनपुर में शर्क़ी समय या मुग़ल समय की इमारतों में इस कला की सुंदरता आज भी देखने को मिल जाय करती है ।लाल दरवाज़ा भी अपनी सुलेख कला के लिए मशहूर था जो अब नहीं बचा लेकिन लाल दरवाज़ा मस्जिद में मेम्बर के पास आज भी आपको सुलेख कला के नमूने मिल जायेंगे |



इस सुलेख कला का श्रेय कजगाँव के मौलाना गुलशन अली जो दीवान काशी नरेश भी थे और राजा इदारत जहाँ को जाता है |







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शाही किले पे लगा रहस्यमय खम्बा जौनपुर के गंगा जमुनी तहजीब की पहचान है |

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माना जाता  रहा है की किसी शहर की जनता की मानसिकता को समझना हो तो उस शहर के इतिहास को अवश्य पढ़ें और यह बात जौनपुर के लिए सौ प्रतिशत सही साबित होती है |

जौनपुर शहर गोमती नदी के किनारे बसा एक सुंदर शहर है जो अपना एक वि‍शि‍ष्‍ट ऐति‍हासि‍क, धार्मिक  एवं राजनैति‍क अस्‍ति‍त्‍व रखता है| यहाँ पे गोमती नदी की सुन्दरता आज भी देखते ही बनती है और आज भी इसके शांतिमय  तट लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं |कभी यह तट तपस्‍वी, ऋषि‍यों एवं महाऋषि‍यों के चि‍न्‍तन व मनन का एक प्रमुख  स्‍थल हुआ करता  था। 





यहीं महर्षि‍ यमदग्‍नि‍ अपने पुत्र परशुराम के साथ रहा करते थे | बौध सभ्यता से ले कर रघुवंशी क्षत्रि‍यों वत्‍सगोत्री, दुर्गवंशी तथा व्‍यास क्षत्रि‍य,भरो एवं सोइरि‍यों का यहाँ राज रहा है | कन्नौज से राजा  जयचंद जब यहाँ आया तो गोमती नदी की सुन्दरता से मोहित हो के उसने यहाँ अपना एक महल जाफराबाद जौनपुर में नदी किनारे बनाया जिसके खंडहर आज भी मौजूद हैं | उसके बाद आये यहाँ शार्की जिनके काल में हि‍न्‍दु - मुस्‍लि‍म साम्‍प्रदायि‍क सदभाव का अनूठा दि‍गदर्शन रहा और जो वि‍रासत में आज भी वि‍द्यमान है। बोद्ध सभ्यता के निशाँ तो अब यहाँ बाक़ी नहीं रहे लेकिन ऐतिहासिक  मंदिरों और शार्की काल में बने भव्‍य भवनों, मस्‍जि‍दों व मकबरों के निशाँ आज भी इस शहर के वैभव की कहानी कह रहे हैं |

गंगा जमुनी तहजीब और साम्‍प्रदायि‍क सदभाव जौनपुर  की पहचान है और इसका कारन यहाँ का वो इतिहास है जसे मैंने आपके सामने रखा | आज  भी साम्‍प्रदायि‍क सदभाव और गंगा जमुनी तहजीब की पहचान है शाही किले के फाटक पे लगा यह खम्बा जिसपे एक क़सम लिखी हुयी है जो अपनी कहानी खुद कह रही है | 

जौनपुर के भव्य शाही किले  का निर्माण  फि‍रोज शाह ने 1362 में कराया था और इसका इस्तेमाल केवल शाही फ़ौज के लिए किया जाता था |  इसके सामने के शानदार फाटक को मुनीम खां ने सुरक्षा की दृष्‍टि‍ से बनवाया था तथा इसे नीले एवं पीले पत्‍थरों से सजाया गया था।

 https://www.youtube.com/user/payameamnइसी बाहरी फाटक में दाखिल होने के पहले एक 6 फीट लम्बा खम्बा है जो एक गोल से चबूतरे पे लगा हुआ है | इस 6 फीट के खम्बे पे 17 लाइन की इबारत लिखी हुयी है | ये  शिला लेख गोलाकार चबुतरे पे लगा हुआ है और उस पे फारसी मे कुछ लिखा हुआ  है | इस शिला लेख की लिखावट सन ११८० हिजरी की है | इसको सैयेद मुहम्मद बशीर खां क़िलेदार ने शाह आलम जलालुद्दीन बादशाह तथा नवाब वज़ीर के समय मे लगवाया था |

सय्यद मुहम्मद बशीर खान ने यहा के शासक और कोतवाल ,फौजदार और निवासियो को चेतावनी दी कि "जौनपुर रियासत की आय मे सैय्यदो  व बेवाओं  तथा उनसे संबंधित और दीन की सहायता हेतू जो धन निश्चित है उसमे कोई कमी ना की जाय |

हिन्दुओ को राम गंगा और त्रिवेणी और मुसलमानो को खुदा व रसूल (स.अ व ) व पंजतन पाक ,सहाबा और चाहारदा मासूम और सुन्नी हजरात को चार यार की क़सम है कि यदि उन्होंने इसका पालन नहीं किया तो खुदा और रसूल की उसपे  धिक्कार होगी और प्रलय के दिन मुख पे कालिमा  लगी होगी तथा नर्क निवासियो की पंक्ती मे शामिल होगा | बारह रबिउल अव्वल  ११८० हिजरी को इस शुभ कार्य का पत्थर  सैयेद मुहम्मद बशीर खां क़िलेदार ने लगवाया  |यह शाह आलम  द्वितीय का दौर था |
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सन ११८० हिजरी में लगे खम्बे पे यदि किसी क़सम में हिन्दू ,शिया और सुन्नी का ज़िक्र है तो यह इस बात का गवाह है की उस समय भी हिन्दू शिया और सुन्नी मुसलमान यहाँ अधिक थे और मिलजुल के रहा करते थे |


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किले में तुर्की हमाम जिसे भूलभुलैया भी कहा जाता है उसके करीब एक बंगाली तरीके की मस्जिद भी मौजूद है और उसी के पास एक मीनार है जिसपे इसे बनाने वाले इब्राहीम नयेब बर्बक का नाम १३७७ खुदा हुआ है |


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जौनपुर का मशहूर कामोत्तेजक चमेली का तेल सेक्स ड्राइव को बढाता है|

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जौनपुर जिसे "शिराज़-ए-हिंद"कहा जाता है आज भी मशहूर है यहाँ के इत्र ,चमेली का तेल, मूली ,ईमारती और मक्के के लिए लेकिन दुःख की बात यह है यह सभी  मशहूर चीज़ें आज विलुप्त होने के कगार पे हैं | चमेली का तेल तो एक समय में मुख्या रूप से यहाँ के लोगों द्वारा इस्तेमाल किया जाता था जो आज शायद ही किसी घर में आपको देखने को मिले |

 https://www.facebook.com/hamarajaunpur/बनवारी लाल जो इस चमेली के तेल के उध्योग से पिछली दो नस्लों से जुड़े हैं उनका कहना है की एक तो चमेली के फूल की पैदवार कम होती जा रही है दुसरे तिल के कारोबार से जुड़े लोगों को कड़ी मेहनत के बाद भी सही मुनाफा नहीं मिलने से यह कारोबार भी अब खतरे में आ गया है| ऐसे हालात में चमेली का तेल बनाना बहुत मंहगा पड़ने लगा है जिसकी वजह से अब जौनपुर में इसकी खपत ना के बराबर हुआ करती है और लोग इस व्यापार से दूर होते जा रहे हैं | अब जो व्यापारी हैं वो जब इसे बनाते हैं तो इसकी सप्लाई महानगरों में या दुसरे देखों में ही किया करते हैं |


चमेली का फूल एक सुगंन्धित फूल है। इसे अंग्रेजी में जास्मीन कहा जाता है| इसके फूलों की खुशबू सभी के मन को प्रसन्न कर लेती है|चमेली के फूल, पत्ते और जड़ तीनों ही चीज़े औषधीय कार्यों में उपयोग में ली जाती है| यही नहीं इसके फूलों से तेल और इत्र का निर्माण भी किया जाता है। इसकी पत्तियों में भी कई तरह के औषधीय गुण विद्यमान होते हैं। यह आपके दांत, मुंह, त्वचा और आँखों के रोगों में फायदा पहुंचाती है।






चमेली का तेल मानव इंद्रियों पर शक्तिशाली वासनोत्तेजक प्रभाव डालता है, इसे कामोत्तेजक तेल माना जाता है। चमेली का तेल समृद्ध, भावनात्मक रूप से जगाने वाला उत्तम तेल है जो आत्मविश्वास को बढ़ाता है और यौन भावना को बल देता है।चमेली का तेल मानव इंद्रियों पर शक्तिशाली वासनोत्तेजक प्रभाव डालता है, इसे कामोत्तेजक तेल माना जाता है। चमेली का तेल समृद्ध, भावनात्मक रूप से जगाने वाला उत्तम तेल है जो आत्मविश्वास को बढ़ाता है और यौन भावना को बल देता है।चमेली का तेल मानव इंद्रियों पर शक्तिशाली वासनोत्तेजक प्रभाव डालता है, इसे कामोत्तेजक तेल माना जाता है। चमेली का तेल समृद्ध, भावनात्मक रूप से जगाने वाला उत्तम तेल है जो आत्मविश्वास को बढ़ाता है और यौन भावना को बल देता है।


अब तो चमेली के तेल बाज़ार में आते हैं उनमे चमेली की खुशबू का इस्तेमाल अधिक हुआ करता है चमेली का इस्तेमाल नहीं होता | इसलिए बाज़ार से अगर आप चमेली का तेल औषधि के रूप में इस्तेमाल करना चाहते हैं तो ज़रा देख भाल के इसे खरीदें |



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जौनपुर रियासत की स्थापना तीन नवंबर १७९७ में शियो लाल दुबे जी ने की थी |

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मेरा ताल्लुक जौनपुर के मशहूर ज़मींदार ज़ुल्क़द्र खान बहादुर के घराने से होने के कारण ,बचपन से राजा जौनपुर के बारे में और उनके अपने घर आने जाने के बारे में सुना करता था लेकिन कभी राजा जौनपुर की हवेली की तरफ जाने का अवसर नहीं मिला था | इस बार सोंचा जौनपुर के इतिहास पे काम अधूरा रह जायगा यदि राजा जौनपुर के बारे में नहीं लिखा और यह सोंच के सुबह साढ़े नौ बजे हम लोग राजा जौनपुर के महल पहुँच गए लेकिन उनके मिलने का समय पहले से ना मालूम होने के कारण ११ बजे तक राजा साहब के बाहरी कमरे में इंतज़ार करना पड़ा |

राजा साहब करीब ११ बजे आये और अपने दफ्तर में उनसे बात चीत शुरू हुई | उन्होंने बताया की जौनपुर रियासत की स्थापना ०३/११/१७९७ में हुई और वो इस रियासत के १२ वें राजा है | राजा अवनींद्र दत्त से इस मुलाक़ात से जौनपुर रियासत की काफी जानकारी हासिल हुई और मैं खुद राजा अवनींद्र दत्त जी का उनके सहयोग के लिए आभारी हूँ |

जौनपुर रियासत की स्थापना तीन नवंबर १९९७ में शियो लाल दुबे जी ने की जो एक धनी बैंकर श्री मोती लाल दुबे के पुत्र थे | शिव लाल दुबे जी अमौली फतेहपुर के रहने वाले थे |१७९७ में उन्हें ताल्लुका बदलापुर “राजा बहादुर “ के खिताब के साथ मिला | उनकी म्रत्यु 90 वर्ष की आयु में सन १८३६ में हो गयी ,उस समय रायपुर राज्य आजमगढ़,बनारस,गोरखपुर,मिर्ज़ा पुर तक पहिल चुकी थी | राजा शिव लाल दत्त की म्रत्यु के बाद उनके पौत्र राजा राम गुलाम जी ने राज्य का काम काज संभाला जबकि उनके पिता राजा बाल दत्त जी अभी जिंदा थे |

राजा राम गुलाम जी की म्रत्यु सन १८४३ में हुई और उनके पिता राजा बाल दत्त ने राज्य की ज़िम्मेदारी संभल ली |रजा बाल दत्त के बाद उनके दुसरे पुत्र लछमन गुलाम राजा बने लेकिन उनकी कोई संतान न होने के कारण सन १८४५ में राजा बाल दत्त की पत्नी रानी तिलक कुंवर के साथ में राज पाट का काम आ गया |

१९१६ में राजा श्री कृष्ण दत्त १९४४ में राजा यद्वेंदर दत्त १९९९ में आज के राजा अवनींद्र दत्त इस राज्य की देख भाल कर रहे हैं |






 जौनपुर रियासत (स्थापना ०३/११/१७४७)

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रजा शिव लाल दत्त पत्नी रानी खेम कुंवर और रानी राम कुंवर

जन्म १७४६ म्रत्यु २९/०१/१८३६- 90 वर्ष

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राजा बाल दत्त पत्नी रानी तिलक कुंवर 

म्रत्यु १८४४

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म्रत्यु १८४३

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राजा लछमन गुलाम पत्नी रानी प्रेम कुंवर

म्रत्यु १८४५

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राजा हरी गुलाम पत्नी रानी राम कुंवर

म्रत्यु १८५७

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राजा शिव गुलाम पत्नी रानी जशोदा कुवर

म्रत्यु १८५८

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राजा लछमी नारायण पत्नी गुलाब कुंवर

म्रत्यु १८७५

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राजा हरिहर दत्त पत्नी रानी शाहोद्र कुंवर

म्रत्यु १८९२

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राजा शंकर दत्त पत्नी रानी गुमानी कुंवर

म्रत्यु १८९७

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राजा श्री कृष्ण दत्त पत्नी रानी इश्वरी कुंवर

जन्म १८९६ -म्रत्यु १९४४

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राजा यादवेन्द्र दत्त पत्नी रानी दयावती कुंवर

जन्म १९१८ म्रत्यु १९९९

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राजा अवनींद्र दत्त पत्नी रानी नीता कुंवर

जन्म १९४७ 



राजा जौनपुर का अतिथि गृह 


सेक्स को गुप्त ही रहने दो | डा.पवन कुमार मिश्र

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Dr. Pawan K. Mishra
मानव जीवन के उद्विकास के क्रम में ढेर सारे पड़ाव  आये मसलन वह कपडे पहनने लगा परिवार बना कर रहने लगा राज्य की स्थापना हुई अधिकारों और कर्तब्यो के सहारे मानव जीवन व्यवस्थित होने की और बढ़ा.सेटल्ड होना मानव का सहज स्वभाव है. किन्तु मानव उतना ही सेटल्ड होगा जितने उसमे हैवानो वाली प्रवृत्तिया कम होंगी. जानवर का सहज स्वभाव है की वह मूल प्रवृत्तियों (बेसिक इंस्टिंक्ट) के सहारे क्रिया करता  है जबकि मानव संबंधो और व्यवहार के सहारे क्रिया करता है.भोजन, नीद, सेक्स और सुरक्षा की आवश्यकता मानव और पशु दोनों को होती है. फर्क पद्धति में है. फर्क संस्कृति का है.  कच्चा मांस खाना  व्यभिचार और सुरक्षित होने के लिए खून की नदिया बहा देने का क्रम  सांस्कृतिक विकास  कम होता गया.आजकल की  सभ्यता में जो प्रवृत्तिया उभर रही है उसे देखकर लगता है कि घोर अव्यस्थितता की और हम तेजी से लुढ़कते जा रहे है. यह लुढकाव रोमांचक लगता है. यह लुढकाव आधुनिक होने का बोध करता है. समाज में आपको अलग छवि प्रदान करता है. आपको बोल्ड (बोल्ड के अनेक अर्थ है सभी पाठक अपने अपने अनुसार अर्थ लगाने के लिए स्वतंत्र है.) बनाता है.मसलन आप कपडे उतार दे तो आप निर्लज्ज नहीं बोल्डकहलायेगे. (यदि कपडे उतरना बोल्डनेस है तो जानवर हमसे हजार गुना बोल्ड और फैशनेबुल हैं. )

आज कल बोल्ड  साहित्य की जोर शोर से चर्चा चल रही है.पहले तो इससे दूरी बनाना चाहा किन्तु सामाजिक सरोकारो से जुड़े होने की जिम्मेदारी  के कारण अपना मत देना जरूरी समझता  हूँ. 

सेक्स पर वर्जना क्यों?  समाज में व्यवस्था स्थापित करने में सबसे बड़ा रोड़ा आदमी कि मूल प्रव्रत्तिया ही है सेक्स की फीलिंग  जबरदस्त ढंग से मानव को उत्तेजित करती है और डिस्ट्रक्शन की और ले जाने का प्रयत्न करती है. यह परमाणु ऊर्जा से भी ज्यादा ताकतवर है जिसके सहारे जीवन आगे बढ़ता है. यदि सेक्स की फीलिंग  अनियंत्रित हो जाये तो लंका  और ट्राय जैसे साम्राज्य ध्वस्त हो जाते है. जैसे परमाणु ऊर्जा पर नियंत्रण करके हम उससे रचनात्मक एवं मानव कल्याणकारी के कर सकते है ठीक उसी प्रकार सेक्स पर भी नियंत्रण हमारे ऋषियों ने लगाया. विवाह के द्वारा परिवार की स्थापना से मानवता सभ्यता की और उन्मुख हुयी. 

अब सवाल उठता है कि साहित्य में (कालिदास से लेकर सेक्सपियर और वात्स्यायन से लेकर रोस्टर तक) जब इरोटिक देखने को मिलता है तो किसी  ने उस विषय पर लिख कर कौन सा गुनाह कर दिया.  आज यह सवाल हर उस व्यक्ति के लिए मौजूं हो गया है जो नैतिकता के प्रति ज़रा सा भी संवेदनशील है.जब आम्रपाली जैसी वेश्या सम्मानित हो सकती है तो सन्नी  लियोन क्यों नहीं?  



जवाब मै  देता हूँ. कालिदास का साहित्य अश्लील  नहीं है.यदि उन्होंने कही पर सम्भोग क्रिया या नायिका के नख शिख का वर्णन किया है तो वह जिस कलात्मकता के साथ किया है उस स्तर पर पहुचने के बाद हर कवि को वह अधिकार  और क्षमता स्वतः ही प्राप्त हो जाती है. मुझे नहीं लगता कि इस समय ब्लॉग के तथाकथित कवियों कवित्रियो में वह क्षमता और स्तर है. आज कल यह फैशन है कि कृष्ण करे तो रास लीला हम करे तो करेक्टर ढीला.  अरे पहले कृष्ण जैसे निर्लिप्त महायोगी बनकर तो दिखाओ. सारे नियम क़ानून सामान्य मनुष्यों के लिए ही है. महापुरुष ट्रांसमोरल होते है. अब कोइ  वेट लिफ्टर का बेटा  कहे कि मेरे पिताजी १०० किलो का वजन उठाते है तो मै भी उठाऊंगा तो आप उस बच्चे को क्या कहेगे. आम्र्पाली को क्या कभी गार्गी के समतुल्य रखा गया क्या. बात सन्नी लियोन की हो या प्रियंका चोपड़ा की. आप अपने बच्चो को बतायेगे क्या कि इनके जैसा बनो या इनको रोल माडल बनाओ. ये मनोरंजन के साधन तो बन सकते है पर सम्मान और उदाहरण के नहीं. 

होता क्या है कि हर सीकिया पहलवान में गामा पहलवान बनाने की जबरदस्त इच्छा होती है लेकिन उसके लिए वह अपना सीकियापन छोड़ने को तैयार नहीं होता या छोड़ ही नही पाता. फिर बड़ी बड़ी हांकने लगता है और बन जाता है बोल्ड.

प्रत्येक पुरुष और महिला नहाते समय नग्न होते  है  तो चौराहे पर खडा होकर नंगा नहाए और बोले कि मै तो बोल्ड हूँ आप खुद सोचिये. 


डर्टी फीलिंग सबमे होती है. लेकिन उसे नियंत्रित किया जाता है. आप सुबह सुबह डर्टी प्रोसेस से गुजरते है तो क्या उस प्रोसेस की कलाकारियो को आप   इसलिए शेयर करना चाहेगे कि लोग आपको बोल्ड कहे. शर्मिन्दा होने की जगह  आप बोल्ड हो जाते हो. आपकी मूर्खता इतनी बढ़ जाती है कि आप खुद को वात्स्यायन और कालिदास से तुलना करने लगते हो. यह नौटंकी बंद होनी चाहिए. प्रेम शरीर से इतर की चीज है. शरीर वासना है तो प्य्रार उपासना. शरीर एक माध्यम  हो सकता है कितु वैसे ही जैसे पंछी  का घोसला  एक स्वस्थ समाज के निर्माण में सेक्स की बड़ी महती भूमिका है उसको सरे आम करना उसकी छीछालेदर करना और सेक्स का अपमान करना है. सेक्स को गुप्त ही रहने दो क्योकि गुप्त होना ही सेक्स की प्रकृति है. यह हर प्राणी में बाई डिफाल्ट है. 

लेखक.....डॉ पवन विजय   ..जौनपुर 

Dr. Pawan K. Mishra
Associate Professor of Sociology
Delhi  Institute of Rural Development

New Delhi.

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नागपंचमी से कजरी तीज तक कजरी गाई जाती है|

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सुबह कॉलेज जाते समय रास्ते में मंदिर पड़ता है। यों तो रोज कुछ न कुछ कार्यक्रम वहाँ होते रहते हैं किन्तु त्योहारों पर अक्सर भीड़ सड़क तक आ जाती है। आज कुछ सपेरे मंदिर प्रांगण में महुअर (बीन) बजा रहे थे। उस समय कॉलेज जाने की जल्दी में इस बात पर ज्यादा ध्यान नही दिया किंतु कॉलेज पहुँचने के बाद जब मैंने अपना इनबॉक्स खोला तो वह नाग पंचमी की शुभकामनाओं से भरा था। जीवनरूपी फिल्म की रील पीछे जाने लगी। 

नाग पंचमी को हमारे यहाँ जौनपुर में "गुड़ुई"भी कहा जाता है। गुड़ुई यानि गुड़िया का पर्व। गुड़ुई के एक दिन पहले हम लोग बेर की टहनियों को काट कर उसे हरे नीले पीले लाल रंगो से रँगते हैं । बहनें कपड़े की गुड़िया बनातीं। साल भर के पुराने कपड़े लत्ते से सुंदर सुंदर गुड़िया बनाई जाती। गुड़िया बनाना एक सामूहिक प्रयास होता था। इस बहाने अम्मा अपनी गुड़िया बनाने की परम्परात्मक कला का हस्तांतरण बहनों को करतीं। हम सब भाई इस फिराक में रहते कि मेरी बहन की गुड़िया सबसे सुंदर होनी चाहिए। गुड़िया सजाने के सारे सामान जुटाए जाते। गुड़िया तैयार होने के बाद एक बार बच्चों में फौजदारी तय होती थी कि तलैया तक कौन गुड़िया ले जायेगा। गुड़िया को खपड़े पर लिटा कर अगले दिन के लिए उसे ढँक दिया जाता था। उसके बाद गोरू बछेरू को नहला धुला कर उनकी सींगों पर करिखा लगा कर गुरिया उरिया पहना कर चमाचम किया जाता था। 

गुड़ुई के दिन 'पंडा वाले तारा'पर हम सब भाई बहिन जाते थे। बहिनें गीत गाते जोन्हरी की 'घुघुरी'लिए ताल के पास पहुँचती थी। वहाँ जैसे ही गुड़िया तालाब में फेंकी जाती हम सब डंडा ले गुड़िया पर पटर पटर करने लगते। इस खेल में एक नियम था कि डंडे को आधे से तोड़ कर एक ही डुबकी में गुड़िया सहित डंडे को तालाब में गाड़ देना है। जो यह कर लेता वह राजा। खैर इस चक्कर में हम सब साँस रोकने का अच्छा अभ्यास कर लेते।
डाली पर झूला पड़ा है। बहिनें गा रहीं 

हंडिया में दाल बा गगरिया में चाउर...
हे अईया जाय द कजरिया बिते आउब... 
कोल्हुआ वाली फुआ ने कहा ... हे बहिनी अब उठान गावो चलें घर में बखीर बनावे के है। 

उठान शुरू 
तामे के तमेहड़ी में घुघुरि झोहराई लोई ...

इधर हम सब अखाड़े पहुँच जाते। मेरे तीन प्रिय खेल कुश्ती, कूड़ी (लम्बी कूद) और कबड्डी। कूड़ी में उमाशंकर यादव के बेटवा नन्हें का कोई जोड़ नहीं था। ज्वान उड़ता है । वह दूसरे गाँव का है । हमारे यहाँ के लड़के क्रिकेट खेलते थे इसलिए नन्हें से कोई कूड़ी में जीत नहीं पाता। हाँ कुश्ती को हमारे गाँव में श्रेय बच्चेलाल पहलवान को को जाता है। बच्चेलाल के एक दर्जन बच्चे थे। वह अपने बच्चों को खूब दाँव पेच सिखाते थे। धीरे धीरे गाँव में कुश्ती लोकप्रिय हो गयी। मैं अपने बाबू (ताउजी) से कुश्ती सीखता था। गुड़ुई वाले दिन कुश्ती होनी होती है । सारा गाँव-जवार के लोग जुटते हैं। जोड़ पे जोड़ भिड़ते भिड़ाये जाते हैं। 


मार मार धर धर
पटक पटक 
चित कर चित कर 
ले ले ले 
फिर हो हो हो हो हाथ उठकर विजेता को लोग कंधे पर बैठा लेते। 

अचानक गाँव के सबसे ज्यादा हल्ला मचाऊ मोटे पहलवान सुग्गू ने मेरा हाथ उठाकर कहा 'जो कोई लड़ना चाहे रिंकू पहलवान से लड़ सकता है!'बाबू सामने बैठे थे। मैंने भी ताव में आकर कह दिया'जो दूध-माई का लाल हो आ जाए'मेरी उमर लगभग पंद्रह बरस रही होगी उस समय, मेरी उमर के सभी लड़के मुझसे मार खा चुके थे सो कोई सामने नहीं आया। अचानक कोहरौटी से हीरालाल पहलवान ताल ठोकता आया बोला मेरी उमर रिंकू से ज्यादा है लेकिन अगर ये पेट के बल भी गिरा देंगे तो पूरे कोहरान की ओर से हारी मान लूँगा। सुग्गु ने हल्ला मचाया। अखाड़े में हम दोनों आ डटे। हीरा मुझे झुला झुला फेंकता। बाबू की आखों में चिंता के डोरे दिखने लगे। हीरा ने मेरी कमर पकड़ी और मेरा सर नीचे पैर ऊपर करने लगा। जैसे ही मेरा पैर ऊपर गया मैंने पूरी ताकत से हीरा के दोनों कान बजा दिए। हीरा गिरा धड़ाम से। मैंने धोबीपाट मारा। सुग्गु ने हो हो हो करते मुझे कंधे पर लाद लिया। फिर तो वह नागपंचमी वाला दिन मेरा था। 

अखाड़े से वापस आने के बाद अम्मा ने बखीर (चावल और गुड़ से बनता है) बनाया था साथ में बेढ़नी (दालभरी पूड़ी) की रोटी भी खाई गयी । रात में गोईंठा (उड़द से बनता है ) भी बना था जिसको बासी खाने का मजा ही कुछ और होता था। 
...
शाम को कजरी का कार्यक्रम मंदिर में नागपूजा और ये सब बारिश की बूँदाबाँदी में।

शाम की चौपाल में कजरी घुलने लगी-
रस धीरे धीरे बरसे बदरवा ना.… 
हो बरसे बदरवा ना.… 
हो बरसे बदरवा ना.… 
कि रस धीरे धीरे बरसे बदरवा ना।

किसी और ने तान छेड़ी-
बँसिया बाज रही बृंदाबन टूटे सिव संकर के ध्यान। ... 
टूटे सिव संभो के ध्यान... 

सुक्खू काका जोर जोर से आलाप ले रहे हैं। सारा गाँव झूमता है। अमृत रस पीकर धरती की कोख हरी हो गयी है। यही तो नागपंचमी का जादू होता था। 

आज उस जादू को किसकी नजर लगी? क्या भूमण्डलीकरण इन मौसमी त्योहारों को निगल गया या हमारे अंदर के लालच के कारण हम इन्हें भूल बैठे। 

नागपंचमी से कजरी तीज तक कजरी गाई जाती है, जौ के बीज बोना जरई डालना भी इसी दिन होता है। कजरी गाना भी इसी दिन से शुरू हो जाता है। बाद में कजरी तीज पर कजरी त्यौहार के रूप में मनाया जाता है। नागपंचमी, रक्षाबंधन के त्यौहार में महिलाएँ खासकर लड़कियाँ कजरी गुनगुनाने लगती हैं। कजरी के मौसम में पुरुष अपने कजरी के कार्यक्रम शुरू कर देते हैं। 

लड़कियाँ नागपंचमी के दिन जौ के बीज बोती हैं इस प्रथा को ‘जरई डालना’ बोला जाता है। रक्षाबंधन के तीसरे दिन जरई को वो नदी या तालाब में बहाने जाती हैं और साथ ही कजरी गाती हैं, तालाब में बहाने के बाद घर वापस आते समय थोड़ी सी जरई अपने साथ ले आती हैं। लड़कियाँ जरई को अपने भाई, चाचा, पिता व अन्य रिश्तेदार के कान पर रखती हैं। यही लोग उनको नेग के रूप में कपड़े, पैसे व अन्य वस्तु भेंट करते हैं फिर सब साथ में कजरी गाते-सुनते हैं।


श्रावण में कजरी मीरजापुर का विशेष पर्व होता है जिसमें बालिकायें नागपंचमी के दिन जौ के बीज रोपती हैं, व नीम के पेड़ के नीचे जरई माँ की स्तुति में रतजागा और उनकी स्तुति में सामूहिक कजरी व देवी गीत गाती हैं। सावन की मौनापंचमी (नागपंचमी) के दिन दूध, धान की खील आदि से विषहरा भगवती (मनसा देवी) की मौन रहकर पूजा की जाती है।

डॉ पवन विजय

Dr. Pawan K. Mishra
Associate Professor of Sociology
Delhi  Institute of Rural Development

New Delhi.

 Admin and Founder 
S.M.Masoom
Cont:9452060283

नागपंचमी के बाद से ही तीज त्योहार का पर्व शुरू हो जाता है

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नागपंचमी का पर्व पूर्वी उत्तर प्रदेश में हिन्दू धर्म में सावन महीने से त्योहारों के शुरूवात का पर्व माना जाता है। नागपंचमी का पर्व सोमवार २३ जुलाई २०१२ को है। परम्परागत व हर्षोल्लास पूर्वक त्यौहार को मनाने के लिए रविवार को लोगों ने बाजार से नाग देवता के पोस्टर, धान का लावा व तिल की जमकर खरीदारी की।

हिंदू पर्वो में नाग पंचमी का खासा महत्व है। इस दिन नाग देवता की पूजा कर दूध व लावा चढ़ाने की रस्म पूरा की जाती है। घर की व्रती महिलाएं तिल ग्रहण करती हैं। वहीं गांव के सरोवरों पर महिलाओं द्वारा गीत गाकर गुड़िया फेंकी जाती है। इस दौरान महिलाएं एक दूसरे को प्रसाद भेंट करती हैं। जगह-जगह दंगल का पारंपरिक तरीके से आयोजन होता है। वहीं महिलाएं कजरी की तान छेड़ झूले का आनंद उठाती हैं। गांव में लोग घर के आसपास स्थित पेड़ की डाल पर झूला डाले रहते हैं। ऐसा माना जाता है कि नाग पंचमी के दिन इन सब रस्मों को पूरा करना शुभ होता है। यह दिन संपेरों की रोजी रोटी के लिए भी खास होता है। कारण कि नाग देवता के दर्शन कराने पर उन्हें लोगों से पैसे भी मिलते हैं।

हिन्दू धर्म शास्त्रों के अनुसार जहां पशु, पक्षियों, वृक्षों में देवताओं का वास बताया गया है वहीं नाग देवता का पूजन भी किया जाता है। आदिकाल से नागपंचमी के पर्व पर जहां लोग विभिन्न पूजन सामग्रीयों से नागपंचमी के दिन स्नानकर प्रातःकाल दूध-लावा चढ़ाकर नाग देवता को प्रसन्न करने के लिये पूजन-अर्चन करते है वहीं इस पर्व पर मल्ल युद्ध कलाप्रेमी पहलवान लगोट पूजन, गदा जोड़ी, अखाड़ा पूजन कर प्रसाद बांटने के बाद आज के दिन से कुश्ती कला की रियाज का शुरूवात करते है। गांव से लेकर नगर तक झूले पड़ जाते है। दिनभर बच्चे झूले का आनन्द लेते है। रात में महिलायें झूले पर बैठकर कजरी गाती है तथा झूला झूलती है।

नागपंचमी के बाद से ही तीज त्योहार का पर्व शुरू हो जाता है जिसके चलते इस पर्व का पूर्वी उत्तर-प्रदेश में ज्यादा महत्व हैं।

हमारे गांव में इस समय महिलाये झूले पर बैठ कजरी गा रही होंगी।,,,,, डॉ पवन विजय

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हमारे गांव में इस समय महिलाये झूले पर बैठ कजरी गा रही होंगी। पेंग मारे जा रहे होंगे। हलकी बारिश में भीगे ज्वान नागपंचमी की तैयारी में अखाड़े में आ जुटे होंगे और मैं यहाँ ७०० किलोमीटर दूर कम्प्यूटर तोड़ रहा हूँ। खैर आप लोग लोकभाषा में लिखे इस गीत और भाव को देखिये। 
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हमका मेला में चलिके घुमावा पिया 
झुलनी गढ़ावा पिया ना। 

अलता टिकुली लगइबे 
मंगिया सेनुर से सजइबे, 


हमरे उँगरी में मुनरी पहिनावा पिया

मेला में घुमावा पिया ना।



हँसुली देओ तुम गढ़ाई

चाहे कितनौ हो महंगाई,


हमे सोनरा से कंगन देवावा पिया
हमका सजावा पिया ना।

बाला सोने के गढ़इबे
चांदी वाली करधन लइबे,

छागल माथबेनी हमके बनवावा पिया
झुमकिउ पहिनावा पिया ना।

कड़ेदीन की जलेबी
रसमलाई औ इमरती,

एटमबम्म तू हमका लियावा पिया
बरफी खियावा पिया ना।

गऊरी शंकर धाम जइबे
अम्बा मईया के जुड़इबे ,

इही सोम्मार रोट के चढावा पिया
धरम तू निभावा पिया ना। 


भारत के इतिहास में जौनपुर का विशेष स्थान है।

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डॉ 0 सज़ल सिंह इतिहासकार
आदि गंगा गोमती के पावन तट पर बसा जौनपुर भारत के इतिहास में अपना विशेष स्थान रखता है। अति प्रचीन काल में इसका आध्यात्मिक व्यक्तित्व और मध्यकाल में सर्वागिक उन्नतिशील स्वरूप इतिहास के पन्नो पर दिखाई पड़ता है। शर्कीकाल में यह समृध्दशाली राजवंश के हाथो सजाया गया। उस राजवंश ने जौनपुर को अपनी राजधानी बनाकर इसकी सीमा दूर दूर तक फैलाया। यहां दर्जनो मस्जिदो के निर्माण के साथ ही खुब सूरत शाही पुल और शाही किले का निमार्ण और पूरी राजधानी सुगंध से महकती रहती थी। राजनीतिक, प्रशासनिक, सांस्कृतिक,कलात्मक और शैक्षिक दृष्टियो से जौनपुर राज्य की शान बेमिसाल थी।

ऋषि-मुनियो ने तपस्या द्वारा इस भूमि को तपस्थली बनाया, बुध्दिष्टो ने इसे बौध धर्म का केन्द्र बनाया। हिन्दू-मुस्लिम गंगा-जमुनी संस्कृति गतिशील हुई। यह शिक्षा का बहुत बड़ा केद्र रहा,यहां इराक, अरब, मिश्र, अफगानिस्तान, हेरात, बदख्शां आदि देशो से छात्र शिक्षा प्राप्त करने यहां आते थे। इसे भारतवर्ष का मध्युगीन पेरिस तक कहा गया है और शिराज-ए-हिन्द होने का गौरव भी प्राप्त हैं।

हिन्दी, उर्दू, अरबी, फारसी, और संस्कृत भाषाओ में यहां के कवियो और लेखको ने प्रभुत साहित्य लिखा। यहां की सास्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक एकता दुनियां में विख्यात हैं। अंग्रेजी राज्य में स्वतंत्रता के लिए यहां के लोगो ने जो प्रणो की आहुति दी हैं उसके खून के धब्बे आज भी पूरे जनपद से मिटे नही हैं

अपने अतीत एवं विद्या-वैभव के लिए सुविख्यात जनपद जौनपुर अपना एक विशिष्ट ऐतेहासिक, सामाजिक एवं राजनैतिक अस्तित्व रखता है। पौराणिक कथानको शिलालेखो, ध्वसावशेषो एवं अन्य उपलब्ध तथ्यो के अधार पर अतीत का अध्ययन करने पर जनपद का वास्तविक स्वरूप किसी न किसी रूप में उत्तर वैदिककाल तक दिखाई पड़ता हैंै। आदि गंगा गोमती नगर का गौरव एवं इसका शांतिमय तट तपस्वी, ऋषियों एवं महाऋषियों के चिन्तन व मनन का एक प्रमुख पुण्य स्थल था, जहां से वेदमंत्रो के स्वर प्रस्फुटित होते थे। आज भी गोमती नगर के तटवर्ती मंदिरो में देववाणियां गुज रही हैं।

  इस जनपद में सबसे पहले रघुवंशी क्षत्रियों का आगमन हुआ। बनारस के राजा ने अपने पुत्री की शादी आयोध्या के राजा देवकुमार से किया और दहेज में अपने राज्य का कुछ भाग दे दिया। जिसमें डोभी क्षेत्र के रघुवंशी आबाद हुए। उसके बाद ही वत्यगोत्री,दुर्गवंश और व्यास क्षत्रिय इस जनपद में आये। जौनपुर में भरो और सोइरियों का प्रभुत्व था। बराबर भरो और क्षत्रियों में संघर्ष होता रहा। गहरवार क्षत्रियों ने भरो और सोइरियों के प्रभुत्व को पुरी तरह समाप्त कर दिया। ग्यारहवीं सदी में कनौज के गहरवार राजपूत जफराबाद और योनापुर यानी जौनपुर को समृध्द और सुन्दर बनाने लगें। कन्नौज से यहां आकर विजय चंद्र ने कई भवन और गढ़ी का निर्माण कराया।
 1194 ई0 में कुतुबुद्दीन ऐबक ने मनदेव यानी जफराबाद पर आक्रमण कर दिया। तत्कालीन राजा उदयपाल को पराजित कर इस सत्ता को दीवान सिंह को सौपकर बनारस की ओर चल दिया। 1389 ई0 में फिरोजशाह का पुत्र महमूद शाह गद्दी पर बैठा। उसने मलिक सरवर ख्वाजा को मंत्री बनाया और बाद में 1393 ई0 में मलिक उसषर्क की उपाधि देकर कन्नौज से बिहार तक क्षेत्र उसे सौप दिया। मलिक उसषर्क ने जौनपुर को राजधानी बनाया। इटावा से बंगाल तक तथा विध्याचंल से नेपाल तक अपना प्रभुत्व स्थापित स्थापित किया। शर्की वंश के संस्थापक मलिक उसषर्क की मृत्यु 1398 ई0 में हो गयी। जौनपुर की गद्दी पर उसका दत्तक पुत्र मुबारक शाह बैठा। इसके बाद छोटा भाई इब्राहिमशाह इस राज्य का बादशाह बना। इब्राहिम निपुण व कुशल शासक रहा। उसने हिन्दुओं के साथ सद्भाव की नीति पर कार्य किया।
 1484 से 1525 ई0 तक लोदी वंश का जौनपुर की गद्दी पर अधिपत्य रहा हैं। 1526 ई0 में दिल्ली पर बाबर ने आक्रमण कर दिया और पानीपत के मैदान में इब्राहिम लोदी को मार डाला। दिल्ली पर विजय प्राप्त करने के बाद बाबर ने अपने पुत्र हिमायूं को जौनपुर राज पर कब्जा करने के लिए भेजा। हिमायूं ने तत्कालीन शासक को मौत के घाट उतार दिया। 1556 ई0 में हिमायूं की मौत हो गयी। पिता की मौत के बाद मात्र 18 वर्ष की आयु में जलालुद्दीन अकबर ने इस गद्दी की कमान सम्भाली। 1567 में ई0 में अली कुली खान ने विद्रोह कर दिया तब अकबर खुद चढ़ायी कर अली कुली खान को मार डाला। अकबर काफी दिनों तक यहां निवास किया। उसके बाद सरदार मुनीम खाॅ को शासक बनाकर वापस चला गया।

साभार शिराज़ ऐ हिन्द 





झंझरी मस्जिद सिपाह जौनपुर

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झंझरी मस्जिद सिपाह जौनपुर में  गोमती के दाहिने किनारे पे स्थित  है । इसको  इब्राहिम शाह  शार्की  ने अटाला तथा खालिस मुख्लिस मस्जिद के समय में बनवाया था । यह सिपाह मोहल्ला खुद इब्राहिम शाह शार्की ने बसाया था और यहां पे फौजी  ,सिपाही रहा करते थे । लेकिन इस इलाक़े में उस समय के कई मशहूर संत क़ाज़ी नसीरुद्दीन गुम्बदी ,हज़रत अबुल फतह सोब्रिस ,सय्यद सदर जहां अजमल ,मौलाना सिराजुद्दीन मिन्हाज इत्यादि रहा करते थे और इनके मदरसे और ख़ानक़ाहें भी  यही पे थी इसी लिए शर्क़ी बादशाहो को यहां पे एक मस्जिद बनवाने  की ज़रुरत हुयी ।

इस मस्जिद को के मेहराब की सुंदरता ऐसी है की कोई भी इसे देखे बिना यहां से नहीं जाता । इसीलिये इसका नाम झंझरी मस्जिद पड़ा । सिकंदर लोधी ने इसे ध्वस्त किया था लेकिन फिर भी इसका एक हिस्सा बच गया जिसपे आयतल कुर्सी लिखी हुयी है ।
आज भी आप इसकी सुंदरता को मोहल्ला सिपास जौनपुर में जा  के देख सकते हैं ।


आधी आबादी और डॉ लाल रत्नाकर

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दुनिया जिसे आधी आबादी कहती है वही आधी आवादी मेरे चित्रों की पूरी दुनिया बनती है. ..डॉ लाल रत्नाकर


यही वह आवादी है जो सदियों से संास्कृ तिक सरोकारों को सहेज कर पीढि़यों को सौंपती रही है वही संस्कारों का पोषण करती रही है. कितने शीतल भाव से वह अपने दर्द को अपने भीतर समेटे रखती है और कितनी सहजता से अपना दर्द छिपाये रखती है. कहने को वह आधी आबादी है लेकिन षेश आधी आबादी यानी पुरूशों की दु निया में उसकी जगह सिर्फ हाशिऐ पर दिखती है जबकि हमारी दु निया में दु ख दर्द से लेकर उत्सव-त्योहार तक हर अवसर पर उसकी उपस्थिति अपरिहार्य दिखती है जहां तक मेरे चित्रो ं के परिवेश का सवाल है, उनमें गांव इसलिए ज्यादा दिखाई देता है क्योंकि मैं खु द अपने आप को गांव के नजदीक महशूस करता हूॅं सच कहूॅ तो वही परिवेश मु झे सजीव, सटीक और वास्तविक लगता है. बनावटी और दिखावटी नहीं.
बार-बार लगता है की हम उस आधी आवादी के ऋणी हैं और मेरे चित्र उऋण होने की सफल-असफल कोशिश भर है.  मेरे चित्रों की ‘नारीजाति की तरंगे’ नारीजाति की तरंगे’ शीर्ष क से इन दिनों एक चित्र प्र दर्श नी ललित कला अकादमी, रवीन्द्र भवन की कलादीर्घा 7 व 8 में 19 मार्च 2011 तक चलेगी, प्र दर्शनी प्रातः 11 बजे से सायं 7 बजे तक खु ली रहती है।


इस चित्र प्रदर्षनी में नारीजाति की तरंगे विषय को केन्द्र में रखकर चित्रों का चयन करके उन्हें प्र दर्शि त किया गया है जिनमें भारतीय नारीजाति की विविध आयामी स्वरूपों का दृश्याकंन किया गया है जिनमें-यह दिखाने का प्र यत्न किया गया है जिनमें जिस रूप में स्त्रियां जन्म से लेकर अब तक आकर्शि त, प्र भावित और उत्प्रेरित करती आयी हैं परंतु इनकी अपनी व्यथा है जो पढ़ना बहुत
ही सरल होता है. आप मान सकते हंै कि मैं पु रुषों को उतनी आसानी से नहीं पढ़ पाता हूं । मैने बेशक स्त्रियो ं को ही अपने चित्रों में प्र मु ख रुप से चित्रित किया है, क्योकि मु झे नारी सृ जन की सरलतम उपस्थिति के रूप मे ं परिलक्षित होती रहती है कहीं कहं के फुहड़पन को छोड़ दंे तो वे आनन्दित करती आयी हैं जिसे हम बचपन से पढ़ते सुनते और देखते आए हैं यदि हम यह कहें कि नारी या श्रृंगार दोनों में से किसी एक को देखा जाए तो दूसरा स्वतः उपस्थित होता है ऐसे में सृ जन की प्र क्रि या वाधित नहीं
होती वैसे तो प्र कृ ति, पशु , पक्षी, पहाड,़ पठार और पुरूश कभी कभार बन ही जाते हैं . परन्तु शीतलता या सुकोमल लता के बदले किसी को चित्रित किया जा सकता है तो वह सम्भवतः नारी ही है.


मेरी स्त्रियां सीता नहीं हैं कृ श्ण की राधा नहीं है और न ही रानी लक्ष्मीबाई हैं ये स्त्रियां खेतों खलिहानों में अपने पुरूषों के साथ काम करने वाली जिन्हें वह अपना राम और कृष्ण समझती हैं लक्ष्मीबाई जैसे नहीं लेकिन अपनी आत्म रक्षा कर लेती हैं वही मु झे प्र ेरणा प्र दान करती हैं।

मेहनतकश लोगों की कु छ खूबियां भी होती हैं जिन्हें समझना आसान नहीं है यदि उन्हें चित्रित करना है तो उनके मर्म को समझना होगा उनके लय उनके रस के मायने जानना होगा, उनकी सहजता उनका स्वाभिमान जो पूरी देह को गलाकर या सु खाकर बचाए हैं दो जून रूखा सूखा खाकर तन ढक कर यदि कु छ बचा तो धराउूं जोड़ी का सपना और सारी सम्पदा समेटे वो जैसे नजर
आते हैं वैसे होते नहीं उनका भी मन है मन की गुनगुनाहट है जो रचते है अद् भूद गीत संगीत व चित्र जिन्हें लोक कह कर उपेक्षित कर दिया जाता है उनका रचना संसार और उनकी संरचना मेरे चित्रों में कैसे उपस्थित रहे यही प्र यास दिन रात करता रहता हूं. उनके पहनावे उनके आभू षण जिन्हें वह अपने हृदय से लगाये रात दिन ढ़ोती है वह सम्भव है भद्र लोक पसन्द न करता हो और उन्हें गंवार समझता हो ले किन इस तरह के आभूषण से लदी फदी स्त्रियां उस  समाज की भद्र मानी जाती है ये भद्र 2 महिलाएं भी मेरे चित्रों में सु संगत रूपों में उपस्थित रहती हैं मेरे ग्रमीण पृ ष्ठभूमि के होने मतलब यह नहीं है कि मैं और भी विषय का वरण अपनी सृजन प्र क्रि या के लिये नहीं कर सकता था पर मेरे ग्रमीण परिवेश ने मु झे पकड़े रखा ऐसा भी नहीं मैंने छोटी सी कोशिश भर की है उनको समझने की।


जिस स्त्री का मेरी कला से सरोकार है मूलतः वह रंगों के प्र ति सजग होती है उसे प्र ारम्भिक रंगो से गजब का लगाव है जिन्हे वह सदा वरण करती हैं,मूलतः ये मूल रंग इनके मूल में बसे होते े हैं यथा लाल पीला नीला बहु त आगे बढ़ी तो हरा बैगनी और नारंगी इसके सिवा उसके जीवन में जो रंग दिखाई देते हैं वह सीधे सीधे कुछ अलग ही संदेष सम्प्र ेषित करते हैं इन रंगो मे प्र मु ख हैं काला और सफेद जिनके अपने अलग ही पारम्परिक सन्दर्भ हैं .

इन रंगो के साथ उसका सहज जुडाव उसे प्रकृ ति और सत्य के समीप रखता है, उत्सव एवं पारम्परिक मान्यताएं भी इन चटख रंगो को अंगीकृ त करते हैं।  आज के बदलते दौर में हमारी स्त्री उतनी प्र भावित नहीं हो रही है, लेकिन अगली पीढ़ी सम्भव है तमाम बदलते सरोकारों को स्वीकारे लेकिन निकट भविष्य में मूलतः जो खतरा दिखाई दे रहा है वह यह है कि इस आपाधापी मे ं उसकी अपनी पहचान ही न खो जाए.समकालीन दु निया के बदलते परिवेष के चलते आज बाजार वह सामग्र ी परोस रहा है जो उस क्षेत्र तो क्या उस पूरे परिवेश तक की वस्तु नही है इसका मतलब यह नही हु आ कि मैं विकास का विरोधी हूं लेकिन जिन प्रतीकों से मेरा रचना संसार समृ द्ध होता है उसमें आमूल चूल परिवर्त न एक अलग दु निया रचेगा जिससे सम्भवतः उस परिवेश विशेष की निजता न विलु प्त हो जाए।


सहज है वेशकीमती कलाकृ तियां समाज या आमजन के लिए सपना ही होंगी मेरा मानना इससे भिन्न है जिस कला को बाजार का संरक्षण मिल रहा है उससे कला उन्नत हो रही है या कलाकार सदियों से हमारी कलायें जगह जगह विखरी पड़ी हैं अब उनका मूल्यांकन हीे भी तो उससे तब के कलाकारों को क्या लाभ. आज भी जिस प्रकार से बाजार कला की करोड़ो रूपये कीमत लगा रहा है बेशक उससे कलाकारों को प्र ोत्साहन मिलता है वह उत्साहित होता है लेकिन यह खोज का विषय है कि यह करोड़ो रूपये किन कलाकारों को मिल रहे हैं. कम से कम समाज ने तो इसे सु न सु न कर कलाकार को सम्मान देना आरम्भ कर दिया है कल तक जहां कला को कु छ विशेष प्र कार के लोगों का काम माना जा रहा था आज हर तबके के लोग कलाकार बनने की चाहत रखते हैं इससे कलाकार  की समाज में प्र तिष्ठा बढ़ी है…………डॉ लाल रत्नाकर



 
पिछले दिनों मेरे चित्रों की एक प्रदर्शनी ललित कला अकेडमी नई दिल्ली  की गैलरी सात और आठ में आयोजित हुयी जिसमें अनेक गणमान्य अतिथि शरीक हुए जिन्होंने कुछ न कुछ मेरे चित्रों के विषय में लिखा है . उनके विचारों को यहाँ दे रहा हूँ -


"महिलाओं के एसे रूप जो आजकल नज़र नहीं आते, औरतें जो तरक्की की खान हैं, लेकिन अपने को व्यक्त नहीं कर पा रहीं; उनकी समग्र शक्ति और रचना का दर्शन करने के लिए डॉ.लाल रत्नाकर बधाई के पात्र हैं."श्री संतोष भारतीय - संपादक 'चौथी दुनिया'




"वर्तमान परिदृश्य में मिडिया अथवा कला जगत में भारत को देख पाना कुछ मुश्किल हो गया है ! डॉ.लाल रत्नाकर के चित्रों भारत, भारत का ग्रामीण जीवन, ग्रामीण परिवेश देखकर ख़ुशी हुयी . महिलाओं की छवियों को  विविध रूपों , आयामों में देखना एक सुखद अनुभव रहा . बहुत २ बधाई एवं शुभकामनाएं .
डॉ.लक्ष्मी शंकर वाजपेयी - केंद्र निदेशक 'आकाशवाणी'नई दिल्ली




ग्राम्य परिवेश में औरतों की भाव-भंगिमाएं, जिसमें वहां की अनेक विसंगतियां उभरती हैं , देखना ! सचमुच सुखद है. कुछ नए चित्रों और रेखांकनों में जीवन जिस तरह अभिव्यक्त है, वह कम सराहनीय नहीं . बधाई ! शुभकामनायें!
श्री हीरा लाल नागर


डॉ.रत्नाकर की कला प्रदर्शनी लोक जीवन का रंगोत्सव है . लोक मुहावरे की पकड़ और आधुनिकता के प्रयोग ने इनके कलाकर्म को विशिष्ट बनाया है. बधाई !

श्री प्रदीप सौरभ    पत्रकार एवं साहित्यकार






कल मैंने आपकी पेंटिंग देखीं थीं। अभिभूत हूँ उन्हें देख कर। अन्य चित्र प्रदर्शनियों के समान आपकी चित्र प्रदर्शनी फर्नीचर की दुकान समान नहीं थीं। लाल रत्नाकर जी के चित्रों से रू ब रू होते ही आप एक सम्मोहन में बंध जाते हैं मानो। पेंटिंग के पात्र-दृश्य-रंग-ब्रुश स्ट्रोक मानो सांस लेते हैं आपके साथ। उनके दर्द में आप उदास होने लगते हैं, उनके उल्लास में आप मानो नाचने के लिए आतुर होने लगते है। पेंटिंग्स के बीच में खड़े हो कर लगता है मानो किसी भूले-बिसरे मित्र ने अचानक आप को छू लिया हो और धीरे से मानों कान में कहा हो-"इतने दिन बाद आए ! मैं कब से प्रतीक्षा कर रहा था/रही थी "रंग मानो आपके अंतस में पैठ कर आपको सराबोर कर देते है। ब्रुश स्ट्रोक ऐसे कि लगे मानो अभी भी पात्रों को सहला रहे हों। जीवन की कठोरता, दारिद्र्य में भी पात्रों,दृश्यों,रंग, संयोजन की कोमलता बनी रहती है। मैं अभिभूत हूँ। धन्यवाद रत्नाकर जी.


श्री उमराव सिंह जाटव
हिन्दी लेखक हैं

जौ भरि जाई कुठिला अंगनवा ना ??

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खेती -किसानीसेजुड़ेलोग ,मौसमकाहरदिनबदलताहालदेखहैरानहैं .उनकेसपने -उनकीआशासबकुछफसलहीतोहै.अच्छीफसलमतलबसालभरसुकूनकाजीवननहींतोफिर---कहाँजायेंगेकिससेमांगेंगे.माईकीदवाई ,बच्चोकीपढाई,बिटियाकाविवाह,सालभरकारिश्तेदारीऔरछोटे-मोटेखर्च,कौनदेगा ....?उनकेलिएकोईवेतनमानतोफिक्सहैनहीं .उनकावेतनमानबढ़ानेवालीप्रकृतितोउनसेरूठतीजारहीहै ,अच्छीफसलहीतोउनकाप्रोन्नतवेतनमानहै ,फसलचौपटतोबिनाअग्रिमपगारकेबाहर. इसबारसरसोंकीफसलपूरेपूर्वांचलमेंगजबकीहै...... 

परमौसमकेकरवटसेकिसानोंकेमाथेपरबलपड़गयेहैंपतानहींसुरक्षितघरकेअंदरपायेगी .अरहरकीदालकीसमस्याकोदेखतेइसबारकिसानोंनेंव्यापकतौरपरअच्छेक्षेत्रफलमेंअरहरकीबुआईकीथीमौसमबार-बारऐसाठंडा-गर्महुआकिदोबारअरहरकेफूलआकरझड़गये ,अबतीसरीबारफिररहेहैं , लेकिनमौसमगर्महोरहाहैऐसेमेंफलीऔरउसकेअंदरकेदानोंकासूखजानेकाडरहै ,अच्छीफसलकीउम्मीदखत्महोरहीहै, लगताहैअभीदालगरीबोंकेलिएइसवर्षभीसपनाहीरहेगी.यहीहालगेहूंकाभीहै- बार -बारबढ़जारहेतापमानसेइसकेउत्पादनमेंनिश्चितफर्कपड़ेगा


आजसुबहसबेरेखेतमेंआयेहुएहमारेगांवकेसफलकिसानराकेशतिवारीअवधीकेएकपुरानेंलोकगीतकोजोरदारआवाजदेरहेहैं --गेहुआंकीबलियामेंमोतियाकेदनवा,कतौघुन-घुनवाबजायरहेचनवा ,खेतवाकेमेड़वापेबिहसेकिसनवा ,धरतीहमारउगलतअहैसोनवा ,गंगामाईतोहराकरबदर्शनवाँ,जौभरिजाईकुठिलाअंगनवाना ...
.......
अबइनकोकौन समझायेकि अपनी गंगामाई का हाल भी अब बेहाल हो चला है ,किसानों की तरह ही .......तोआपभीअपनाआशीर्वाददीजियेऔर ऊपर वाले से दुआ कीजिये किइससाल -सालोंसाल ,किसानोंकीझोलीभरीरहे ........आमीन...

चापलूसी सुनने का ऐसा व्यसन भी तो ठीक नहीं ! डॉ अरविन्द मिश्र

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लेखक डॉ अरविन्द मिश्रा 
मनुष्य की अनेक प्रतिभाओं में एक है चमचागीरी/चापलूसी। वैसे तो इस क्षमता में दक्ष लोगों में यह प्रकृति प्रदत्त यानी जन्मजात है मगर कुछ लोग इस कला को सीखकर भी पारंगत हो लेते हैं। चारण और चमचागीरी में बारीक फर्क है।चारण एक पेशागत कार्य रहा है जिसमें भांटगण मध्ययुगीन राजा महराजाओं की विरुदावली गाते रहते थे -उनका गुणगान करते रहना एक पेशा था। मगर मध्ययुगीन भांट लड़ाईयों में भी राजाओं के साथ साथ रणक्षेत्र में जाते थे और इसलिए भट्ट कहलाते थे -भट्ट अर्थात वीर! लगता है भट्ट से ही भांट शब्द वजूद में आया हो। आज भी जो ज्यादा भोजन उदरस्थ करने का प्रताप दिखाता है भोजन भट्ट कहा जाता है।

अब वैसे तो चारण का  हुनर एक पेशागत कर्म नहीं रहा मगर आज भी  लोग बेमिसाल उदाहरण अपने स्वामी/ आका को खुश करने के लिए देते ही रहते हैं. ताजा उदाहरण एक राजनेता का है जिसमें उन्होंने पार्टी अध्यक्ष को सारे राष्ट्र की माता का अयाचित, अनाहूत दर्जा दे दिया। लोगबाग़ विस्मित और उल्लसित भी हो गए चलो चिर प्रतीक्षित राष्ट्रपिता की कोई जोड़ी तो बनी।

चापलूसी थोडा अधिक बारीक काम है। यह प्रत्युत्पन्न बुद्धि, हाजिरजवाबी या वाग विदग्धता(एलोक्वेन्स )  की मांग करता है।वक्तृत्व क्षमता (रेटरिक )  के धनी ही बढियां चापलूस हो सकते हैं। परवर्ती भारत में बीरबल को इस विधा का पितामह कह सकते हैं। वे अपने इसी वक्तृता के बल पर बादशाह को खुश करते रहते थे। पूर्ववर्ती भारत में तो यह विधा सिखायी जाती थी। महाभारत में ऐसे संकेत हैं।आज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में चापलूसी के उदाहरण मिलते ही रहते हैं मगर उनका स्तर घटिया सा हो चला है।

बॉस को खुश करने के लिए ऐसे बेशर्मी से भरे खुले जुमले इस्तेमाल में आते हैं कि आस पास सुनने वाले को भी शर्मिदगी उठानी पड़ जाती है -अब चापलूसी में वक्तृता का पूरा अभाव हो गया है। और वैसे ही आज के  बॉस हैं, जो चाहे राजनीति में  हों या प्रशासनिक सेवा में बिना दिमाग के इस्तेमाल के कहे गए "सर आप बहुत बुद्धिमान हैं "जैसे वाक्य पर भी  लहालोट हो जाते हैं. मतलब गिरावट दोनों ओर है -चापलूसी करने वाले और चापलूसी सुनने वाले दोनों का स्तर काफी गिर गया है।



वैसे शायद ही कोई होगा जिसे अपनी प्रशंसा अच्छी न लगती हो। मगर वह सलीके से की तो जाय। बेशर्म होकर केवल चापलूसी के लिए चापलूसी तो कोई बात नहीं हुयी। यह एक कला है तो कला का कुछ स्तर तो बना रहना चाहिए। कभी कभी मुझे कुछ लोग कह बैठते हैं 'मिश्रा जी आप बहुत विद्वान् आदमी हैं'मैं तुरंत आगाह हो उठता हूँ कि ऐसी निर्लज्ज प्रशंसा का आखिर असली मकसद क्या है? कोई न कोई स्वार्थ जरुर छिपा होता है इस तरह की स्तरहीन चापलूसी में। मगर मैं हैरान हो रहता हूँ जब मैं पाता हूँ कि कई ऐसे सहकर्मी अधिकारी हैं जिन्हे अपने मातहत से  चापलूसी सुने बिना खाना ही हजम नहीं होता। उन्हें चापलूसी करवाते रहने की आदत सी पडी हुयी हैं। कुछ तो चापलूसी करने वाले स्टाफ को अपने साथ ही लगाए रहते हैं और उसे अवकाश पर भी जाने देने में हीला हवाली करते हैं। बिना चापलूसी के दो शब्द सुने उनका दिन ही नहीं कटता।

चापलूसी सुनने का ऐसा व्यसन भी तो ठीक नहीं !

लेखक डॉ अरविन्द मिश्रा 

किसानो का दुश्मन बन गई है नीलगाये

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उत्तर प्रदेश   के किसानो का जानी दुश्मन बनती जा रही है नीलगाय |  नीलगाय एक बड़ा और शक्तिशाली जानवर है। कद में नर नीलगाय घोड़े जितना होता है, पर उसके शरीर की बनावट घोड़े के समान संतुलित नहीं होती। पृष्ठ भाग अग्रभाग से कम ऊंचा होने से दौड़ते समय यह अत्यंत अटपटा लगता है। अन्य मृगों की तेज चाल भी उसे प्राप्त नहीं है। इसलिए वह बाघ, तेंदुए और सोनकुत्तों का आसानी से शिकार हो जाता है, यद्यपि एक बड़े नर को मारना बाघ के लिए भी आसान नहीं होता। छौनों को लकड़बग्घे और गीदड़ उठा ले जाते हैं। परंतु कई बार उसके रहने के खुले, शुष्क प्रदेशों में उसे किसी भी परभक्षी से डरना नहीं पड़ता क्योंकि वह बिना पानी पिए बहुत दिनों तक रह सकता है, जबकि परभक्षी जीवों को रोज पानी पीना पड़ता है। इसलिए परभक्षी ऐसे शुष्क प्रदेशों में कम ही जाते हैं।

वास्तव में "नीलगाय"इस प्राणी के लिए उतना सार्थक नाम नहीं है क्योंकि मादाएं भूरे रंग की होती हैं। नीलापन वयस्क नर के रंग में पाया जाता है। वह लोहे के समान सलेटी रंग का अथवा धूसर नीले रंग का शानदार जानवर होता है। उसके आगे के पैर पिछले पैर से अधिक लंबे और बलिष्ठ होते हैं, जिससे उसकी पीठ पीछे की तरफ ढलुआं होती है। नर और मादा में गर्दन पर अयाल होता है। नरों की गर्दन पर सफेद बालों का एक लंबा और सघन गुच्छा रहता है और उसके पैरों पर घुटनों के नीचे एक सफेद पट्टी होती है। नर की नाक से पूंछ के सिरे तक की लंबाई लगभग ढाई मीटर और कंधे तक की ऊंचाई लगभग डेढ़ मीटर होती है। उसका वजन 250 किलो तक होता है। मादाएं कुछ छोटी होती हैं। केवल नरों में छोटे, नुकीले सींग होते हैं जो लगभग 20 सेंटीमीटर लंबे होते हैं। नीलगाय (मादा) नीलगाय भारत में पाई जानेवाली मृग जातियों में सबसे बड़ी है।


किसान अपने खून पसीने सिचकर फसलो को उगाते है उधर नीलगाये झुण्ड में धावा बोलकर पल भर में चट कर जाती है जो बच गई उन्हें पैरो तलों रौद डालते है ऐसी परिस्थिति में किसान भुखमरी की कगार पर पहुच गये है|
किसान जितनी मेहनत और पैसा  फसलो को उगाने में लगाते है उससे कही जादा नीलगायो से बचाने में लगा रहे है हालत ये हो गये है कि दिनभर किसान खेतो में मेहनत करते है रातभर उनकी रखवाली करते है इसके बावजूद भी पल झपकते है नीलगायो का झुण्ड किसानो कि सारी मेहनत को आपना निवाला बनालेती है किसान बेचारे हाथ मलते रहजाते है.





Jaunpur Neel gae


पूर्व सांसद कमला प्रसाद सिंह के पौत्र और पौत्र वधू ने की आत्महत्या |

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पूर्व सांसद के पौत्र और पौत्र वधू की मौत

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जौनपुर। पूर्व सांसद कमला प्रसाद सिंह के पौत्र और पौत्र वधु की लखनऊ के गोमती नगर आवास पर रहस्यमय तरीके से मृत पाए गए।
बताया जाता है कि पूर्व सांसद के पुत्र अनिल सिंह का बेटा राहुल सिंह 28 वर्ष और उसकी पत्नी लखनऊ के गोमती नगर में स्थित अपने निजी रहते थे। दोनों आज सुबह मृत पाए गए। घटना के कारणों का पता नहीं चल सका है।
घटना की सूचना मिलते ही पूर्व सांसद के पुत्र और परिजन लखनऊ रवाना हो गए।
इस दुखद खबर पाते ही सांसद के शुभचिंतको में शोक की लहर है। काफी लोग उनके जौनपुर के हुसैनाबाद आवास पर पहुच गए।

स्वास्थ्य कारणों से अभी वयोबृद्ध सांसद कमला प्रसाद सिंह को इस हादसे की जानकारी नहीं दी गई है।

लखनऊ के गोमतीनगर के विधायक पुरम के 3/137 में जौनपुर से कांग्रेस के पूर्व सांसद कमला प्रसाद सिंह रहते हैं। आज सुबह पुलिस को उनके आवास से पूर्व सांसद के पौत्र राहुल और पौत्रवधू शिवानी का फंदे पर लटके शव मिले। पुलिस का मानना है कि इन दोनों ने घर में चादर फाड़कर फांसी लगाकर आत्महत्या की है। पति की आत्महत्या की सूचना देने के बाद शिवानी ने भी दी जान।


ख़बरों के मुताबिक, रविवार सुबह राहुल के छोटे भाई साहिल ने जौनपुर से सूचना दी कि उसके भइया और भाभी ने आत्महत्या कर ली है। इसके बाद मौके पर पुलिस पहुंची और दोनों के शवों को कब्जे में लेकर पोस्टमॉर्टम के लिए भेज दिया। शिवानी ने कॉल कर कहा कि राहुल ने कर ली आत्महत्या। पुलिस के मुताबिक, साहिल ने बताया है कि उसकी भाभी शिवानी ने 4 बजकर 10 मिनट पर कॉल किया और उसे बताया कि राहुल ने आत्महत्या कर ली है। आप लोग यहां आ जाइए। इसके बाद शिवानी का फोन स्विच ऑफ हो गया। जब पुलिस पहुंची तो एक का शव पंखे से और दूसरे का कुंडे से लटका मिला। पुलिस आत्महत्या के कारणों का पता लगा रही है। कमला सिंह कांग्रेस पार्टी से जौनपुर से दो बार विधायक और एक बार सांसद रहे हैं।


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शीतला चौकि‍यां धाम मंदिर जौनपुर का दर्शन |

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Dev Diwali at Sheetla Chaukiya

पूर्वाचंल के लोगो का मुख्य आस्था का केद्र मां शीतला चौकियां धाम में श्रद्धालु दर्शन- पूजन कर अपनी मुराद पूरी होने की गुहार लगाने आते है। दरबार में नवरात्री में दिन भर श्रद्धालु मत्था टेकते हैं।नवरात्र के अलावा यहां सप्ताह में सोमवार और शुक्रवार को मेला लगता है। दूर दूर से श्रद्धालु दर्शन पूजन करने यहां आते हैं। मंदिर में भाेर से ही शंख,घंट-घडियाल और श्लोकों के स्वर गुंजायमान हो रहे हैं। इस दौरान देवी के जयकारे से पूरा परिसर गूंज रहा है। वेद पाठी ब्राह्मणों द्वारा सप्तशती श्लोक के सस्वर पाठ से वातावरण धर्ममय बना हुआ है।
Dev Diwali at Sheetla Chaukiya
शीतला चौकियां धाम मन्दिर के निर्माण का कोई ठोस एतिहासिक प्रमाण नहीं मिलता। इतिहासकारों ने मंदिर की बनावट और तालाब के अाधार पर अंदेशा जताते हुए लिखा हैं कि यह मंदिर काफी प्राचीन हैं।
sheetla Chaukuya pe bhakton ki suvidha ke liye lagi pooja ki vastuyein

दर्शन में लिए लगी लाइन 


दर्शन के लिए लगी भरी भीड़ 
 शीतला चौकि‍यां देवी का मन्‍दि‍र बहुत पुराना है। शि‍व और शक्‍ति‍ की उपासना प्राचीन भारत के समय से चली आ रही है। इति‍हास के आधार पर यह कहा जाता है कि‍ हि‍न्‍दु राजाओं के काल में जौनपुर का शासन अहीर शासकों के हाथ में था। जौनपुर का पहला अहीर शासक हीरा चन्‍द्र यादव माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि‍ चौकि‍यां देवी का मन्‍दि‍र कुल देवी के रूप में यादवों या भरो द्वारा र्नि‍मित कराया गया, परन्‍तु भरों की प्रवृत्‍ति‍ को देखते हुए चौकि‍यां मन्‍दि‍र उनके द्वारा बनवाया जाना अधि‍क युक्‍ति‍संगत प्रतीत होता है। भर अनार्य थे। अनार्यो में शक्‍ति‍ व शि‍व की पूजा होती थी। जौनपुर में भरो का आधि‍पत्‍त भी था। सर्वप्रथम चबूतरे अर्थात चौकी पर देवी की स्‍थापना की गयी होगी, संभवत- इसीलि‍ए इन्‍हे चौकि‍या देवी कहा गया। देवी शीतला आनन्‍ददायनी की प्रतीक मानी जाती है। अत: उनका नाम शीतला पड़ा। ऐति‍हासि‍क प्रमाण इस बात के गवाह है कि‍ भरों में तालाब की अधि‍क प्रवृत्‍ति‍ थी इसलि‍ए उन्‍होने शीतला चौकि‍या के पास तालाब का भी र्नि‍माण कराया।

जौनपुर शहर से यह मंदिर केवल ३ किलो मित्र की  दूरी पर है।


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परदेशी-विदेशी पर्यटकों को आकर्षित करने की क्षमता रखने वाला यह बदहाल जौनपुर |

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महर्षि यमदग्नि की तपोस्थली व शर्की सल्तनत की एक शतक तक राजधानी रहने  वाला प्राचीनकाल से शैक्षिक व ऐतिहासिक दृष्टि से समृद्धिशाली शिराजे हिन्द जौनपुर आज भी अपने ऐतिहासिक एवं नक्काशीदार इमारतों के कारण न केवल प्रदेश में बल्कि पूरे भारत वर्ष मेंअपना एक अलग वजूद रखता है। यहाँ पे आज भी आपको सुलेखकला के नमूने मिल जायेंगे | नगर में आज भी कई ऐसी महत्वपूर्णऐतिहासिक इमारतें है जो इस बात का पुख्ता सबूत प्रस्तुत करती है कि यह नगर आज से सैकड़ों वर्ष पूर्व एक पूर्ण सुसज्जित नगर रहा होगा। विद्यापति का कीर्तिलता में जौनपुर कर रमणीक दृश्यों का वर्णन कुछ इस प्रकार किया गया है |

 "जूनापुर नामक यह नगर आँखों का प्यारा तथा धन दौलत का भण्डार था । देखने में सुन्दर तथा प्रत्येक दृष्टिकोण से सुसज्जित था । कुओं और तालाबों का बाहुल्य था । पथ्थरों का फर्श ,पानी निकलने की भीतरी नालिया ,कृषि , फल  फूल और पत्तों से हरी भरी लहलहाती हुयी आम और जामुन के पेड़ों की अवलियाँ ,भौंरो की गूँज मन को मोह लेती थीं । गगनचुम्बी और मज़बूत भवन थे । रास्ते में ऐसी ऐसी गालियां थीं की बड़े बड़े लोग रुक जाते थे । चमकदार लम्बे लम्बे स्वर्ण कलश मूर्तियों से सुसज्जित सैकड़ो शिवाले दिखते थे ।

अगर इसे पर्यटक स्थल घोषित कर दिया जाय तो स्वर्ग होने के साथ बड़े पैमाने परदेशी-विदेशी पर्यटकों को आकर्षित करने का माद्दा इस शहर में आज भी है। नगर के ऐतिहासिक स्थलों मेंप्रमुख रूप से अटाला मस्जिद, शाहीकिला, शाही पुल, झंझरी मस्जिद, बड़ी मस्जिद, चार अंगुली मस्जिद, लाल दरवाजा, शीतला धाम चौकिया, महर्षि यमदग्नि तपोस्थल, जयचन्द्रके किले का भग्नावशेष आदि आज भी अपने ऐतिहासिक स्वरूप एवं सुन्दरता के साथ मौजूद है। इसकेअलावा चार दर्जन से अधिक ऐतिहासिक इमारते यहां मौजूद है जिनमें से कुछ रखरखाव के अभाव में जर्जर हो गये है।
Atala Masjid Jaunpur

कभी-कभी विदेशी पर्यटक यहां आकर ऐतिहासिक स्थलों का निरीक्षण कर यहां की संस्कृति की सराहना करने से नहीं चूकते लेकिन दूसरी तरफ शासन द्वारा पर्यटकों की सुविधा के मद्देनजर किसी भी प्रकार की स्तरीय व्यवस्था न किये जाने से उन्हे काफी परेशानी भी होती है।

हालांकि जनपद को पर्यटक स्थल के रूप में घोषित कराने का   आज तक जो भी प्रयास किया गया  वो नाकाफी रहा  है|
Mahal Raja Jaunpur

Maqbara Goolar Ghat


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Jhanjhri Masjid

Shahi Fort
प्राचीन काल के जो भवन इस समय उत्तर भारत में विद्यमान है उनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं प्राचीन अटाला मस्जिद और बड़ी मस्जिद शर्की शासनकाल के सुनहले इतिहास का आईना है। इनकी शानदार मिस्र के मंदिरों जैसी अत्यधिक भव्य मेहराबें तो देखने वालों के दिल को छू लेती है। अटाला मस्जिद का निर्माण सन् 1408 ई. में इब्राहिम शाह शर्की ने कराया था। सौ फिट से अधिक ऊंची यह मस्जिद हिन्दू-मुस्लिम मिश्रित शैली द्वारा निर्मित की गयी है जो विशिष्ट जौनपुरी निर्माण शैली का आदि प्रारूप और शर्कीकालीन वास्तुकला का उत्कृष्ट नमूना है। शर्कीकाल के इस अप्रतिम उदाहरण को यदि जौनपुर में अवस्थित मस्जिदों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण व खूबसूरत कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
Lal Darwaza Masjid

इसी प्रकार जनपद की प्रमुख ऐतिहासिक इमारतों में से एक नगर में आदि गंगा गोमती के उत्तरावर्ती क्षेत्र में शाहगंज मार्ग पर स्थित बड़ी मस्जिद जो जामा मस्जिद के नाम से भी जानी जाती है, वह शर्की कालीन प्रमुख उपलब्धि के रूप में शुमार की जाती है। जिसकी ऊंचाई दो सौ फिट से भी ज्यादा बताई जाती है। इस मस्जिद की बुनियाद इब्राहिम शाह के जमाने में सन् 1438 ई. में उन्हीं के बनाये नक्शे के मुताबिक डाली गयी थी जो इस समय कतिपय कारणों से पूर्ण नहीं हो सकी। बाधाओं के बावजूद विभिन्न कालों और विभिन्न चरणों में इसका निर्माण कार्य चलता रहा तथा हुसेन शाह के शासनकाल में यह पूर्ण रूप से सन् 1478 में बनकर तैयार हो गया। इन ऐतिहासिक इमारतों के अनुरक्षण के साथ ही साथ बदलते समय के अनुसार आधुनिक सुविधा मुहैया कराकर इन्हे आकर्षक पर्यटक स्थल के रूप मेंतब्दील किया जा सकता है।


नगर के बीचोबीच गोमती नदी के पूर्वी तट पर स्थित उत्थान-पतन का मूक गवाह 'शाही किला'आज भी पर्यटकों के लिए आकर्षण का प्रमुखकेन्द्र बिन्दु बना हुआ है। इस ऐतिहासिक किले का पुनर्निर्माण सन् 1362 ई. में फिरोजशाह तुगलक ने कराया। दिल्ली व बंगाल के मध्यस्थित होने के कारण यह किला प्रशासन संचालन की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण था। इस शाही पड़ाव पर सैनिक आते-जाते समय रुकते थे।किले के मुख्य द्वार का निर्माण सन् 1567 ई. में सम्राट अकबर ने कराया था। राजभरों, तुगलक, शर्की, मुगलकाल व अंग्रेजों के शासनकालके उत्थान पतन का मूक गवाह यह शाही किला वर्तमान में भारतीय पुरातत्व विभाग की देखरेख में है। इस किले के अन्दर की सुरंग का रहस्य वर्तमान समय में बन्द होने के बावजूद बरकरार है। शाही किले को देखने प्रतिवर्ष हजारों पर्यटक आते रहते है।

Pancho Shivala, Pandaraiba, Jaunpur

महाभारत काल में वर्णित महर्षि यमदग्नि की तपोस्थली जमैथा ग्राम जहां परशुराम ने धर्नुविद्या का प्रशिक्षण लिया था। गोमती नदी तट परस्थित वह स्थल आज भी क्षेत्रवासियों के आस्था का केन्द्र बिन्दु बना हुआ है। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि उक्त स्थल के समुचितविकास को कौन कहे वहां तक आने-जाने की सुगम व्यवस्था आज तक नहीं की जा सकी है। झंझरी मस्जिद, चार अंगुली मस्जिद जैसी तमाम ऐतिहासिक अद्वितीय इमारतें है जो अतीत में अपना परचम फहराने में सफल रहीं परन्तु वर्तमान में इतिहास में रुचि रखने वालों केजिज्ञासा का कारण होते हुए भी शासन द्वारा उपेक्षित है।
Char ungli Masjid

मार्कण्डेय पुराण में उल्लिखित 'शीतले तु जगन्माता, शीतले तु जगत्पिता, शीतले तु जगद्धात्री-शीतलाय नमो नम:'से शीतला देवी की ऐतिहासिकता का पता चलता है। जो स्थानीय व दूरदराज क्षेत्रों से प्रतिवर्ष आने वाले हजारों श्रद्घालु पर्यटकों के अटूट आस्था व विश्वास काकेन्द्र बिन्दु बना हुआ है। नवरात्र में तो यहां की भीड़ व गिनती का अनुमान ही नहीं लगाया जा सकता है।



शिराज-ए-हिन्द जौनपुर की आन-बान-शान में चार चांद लगाने वाला मध्यकालीन अभियंत्रण कला का उत्कृष्ट नमूना 'शाही पुल'पिछली कई सदियों से स्थानीय व दूरदराज क्षेत्रों के पर्यटकों के लिए आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है। भारत वर्ष के ऐतिहासिक निर्माण कार्यो में अपना अलग रुतबा रखने वाला यह पुल अपने आप में अद्वितीय है। वही खुद पयर्टकों का मानना है कि दुनिया में कोई दूसरा सड़क के समानान्तरऐसा पुल देखने को नहीं मिलेगा।
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शहर को उत्तरी व दक्षिणी दो भागों में बांटने वाले इस पुल का निर्माण मध्यकाल में मुगल सम्राट अकबर के आदेशानुसार मुनइम खानखानाने सन् 1564 ई. में आरम्भ कराया था जो 4 वर्ष बाद सन् 1568 ई. में बनकर तैयार हुआ। सम्पूर्ण शाही पुल 654 फिट लम्बा तथा 26 फिटचौड़ा है, जिसमें 15 मेहराबें है, जिनके संधिस्थल पर गुमटियां निर्मित है। बारावफात, दुर्गापूजा व दशहरा आदि अवसरों पर सजी-धजीगुमटियों वाले इस सम्पूर्ण शाही पुल की अनुपम छटा देखते ही बनती है।
बड़ी मस्जिद 
Shahi Pull  Jaunpur

इस ऐतिहासिक पुल में वैज्ञानिक कला का समावेश किया गया है। स्नानागृह से आसन्न दूसरे ताखे के वृत्त पर दो मछलियां बनी हुई है। यदिइन मछलियों को दाहिने से अवलोकन किया जाय तो बायीं ओर की मछली सेहरेदार कुछ सफेदी लिये हुए दृष्टिगोचर होती है किन्तु दाहिनेतरफ की बिल्कुल सपाट और हलकी गुलाबी रंग की दिखाई पड़ती है। यदि इन मछलियों को बायीं ओर से देखा जाय तो दाहिने ओर की मछली सेहरेदार तथा बाई ओर की सपाट दिखाई पड़ती है। इस पुल की महत्वपूर्ण वैज्ञानिक कला की यह विशेषता अत्यन्त दुर्लभ है।

हमारा जौनपुर सोशल वेलफेयर फाउंडेशन की तरफ से हर समय यही प्रयास रहता है की इस जौनपुर को परदेशी-विदेशी पर्यटकों के आने योग्य बनवाते हुए इसे पर्यटक स्थल घोषित करवाया जा सके और अपने मकसद में काफी हद तक सफल भी हुए हैं बस नतीजे का इंतज़ार है |

एस एम् मासूम

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