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बिन बलमा फगुनवा जहर लागेला ...

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फागुन फिर आ गया है . गाँव में बसंत पंचमी से फागुनी बयार बह रही है. मुझे गर्व होता है कि कुछ लोग आज भी लोग इस जीवन्तता को कायम किये हुए है,भले ही परिवर्तन का एक नया दौर आ चुका है-लेकिन इस डिजीटल युग में भी हम सब को मौसमों के आने -जाने का एहसास बखूबी होता रहता है.गांव-घर मदनोत्सव का दौर प्रारंभ हो चला है जो कि होली के बाद आठ दिनों तक चलेगा . शाम हुई नहीं कि कहीं ना कहीं ढोल के साथ मंडली बैठ गयी .वैसे भी अवधी की एक कहावत है कि इस फागुन महीने में मदन देव की कृपा से आदमी क्या पेड़ भी नंगे हो जाते हैं. जनपद के विख्यात

लोक कवि स्वर्गीय पंडित रूपनारायण त्रिपाठी जी के शब्दों में-

जहाँ फूले न फागुन में सरसों ,
जहाँ सावन में बरसात न हो |
किस काम का है वह गाँव जहाँ ,
रसजीवी जनों की जमात न हो |

नशा मौसम का सबके लिए है ,
तुझको कुछ और हुआ तो नहीं |
तन में फगुआ न समा गया हो ,
मन में टपका महुआ तो नहीं |
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गत वर्ष फाग -गीतों की एक श्रृंखला मैंने शुरू की थी -उसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए आज फिर यह पोस्ट प्रस्तुत है.

हमारे जौनपुर जनपद के बदलापुर तहसील के गांव बुढ्नेपुर निवासी प्रज्ञा चक्षु बाबू बजरंगी सिंह जनपद के प्रतिष्ठित लोक -गीत गायक माने जाते हैं .नेत्रहीन होने के बावजूद संगीत के प्रति गहरी उनकी आस्था नें लोकगीत गायन के प्रति उन्हें प्रेरित किया.इनके पास श्रवण-परम्परा से प्राप्त लोकगीतों का अद्भुत संग्रह है.


आज फाग-गीत गायन के सम्राट प्रज्ञा चक्षु बाबू बजरंगी सिंह के स्वर में सुनिए अवधी का परम्परागत आंचलिक फाग-गीत  ......डाऊनलोड
इस फाग गीत के बोल हैं-------
कोयल कूक से हूंक उठावे -धानि धरा धधकावे हिया में ,
पपिया पपीहा रतिया के सतावे -फूलत हैं सरसों -सरसों ,
घर कंत न होत बसंत न आवत।
बिन बलमा फगुनवा जहर लागेला।
बिरहिणी आम बौर बौरायल ,
बन तन आग पलाश लगावत ,
पिय घर सबही सुघर लागेला ,
बिन बलमा फगुनवा जहर लागेला
कोयल कूक हूक उदगारत ,
शीतल मंद मलय तन जारत ,
चातक शशि जैसे सर लागेला ,
बिन बलमा फगुनवा जहर लागेला..
फगुनवा आयल रे दैया ,
एक तो उमरिया के बारी रे -पियवा परदेश,
रहि-रहि के मारत कटारी ,
जिया बौराइल रे दैया
फगुनवा आयल रे दैया ,
मारे श्रृंगार हार-रंग रोरी ,
सजनी सोहाइल मोको मंगल होरी ,
गले डाले रुमाल-गले डाले रुमाल-
होली न खेलब सैंया तले
सैंया के मोहन माला हो हमरो चटकील ,
दूनौ के बनिहय गुदरिया,
सुमिरब दिनरात -सुमिरब दिनरात -
होली न खेलब सैंया तले ।
सैंया के शाला दुशाला हो -हमरे गर हार ,
दूनौ क बनिहै सुमिरिनी ,
होई जाबे फकीर -होई जाबे फकीर -
होली न खेलब सैंया तले ।
चातक-शशि विषधर लागेला हो-
बिन बलमा फगुनवा जहर लागेला ॥

यकीन मानिये जो रस इन परम्परागत फाग गीतों में हैं वह आज-कल बज रहे फूहड़ गीतों में नहीं है .अगली सामयिक पोस्ट में एक फागुनी उलारा के साथ फिर मुलाकात होगी--------

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