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Channel: हमारा जौनपुर हमारा गौरव हमारी पहचान
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बड़ा अनोखा है राउर बाबा क मेला|

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हमारा देश भी कितनी विचित्रताओं ,लीलाओं और परम्पराओं के साथ जी रहा है .प्रगतिवादी विचार धारा के लोंगों को बकवास भले ही लगे लेकिन इस महान देश में बहुत ऐसे लोग हैं जिन्हें केवल श्रद्धा और विश्वास के अलावा और कुछ सोचनें के लिए नहीं है .आपको यह विचित्र किन्तु सत्य घटना से दो -चार कराता हूँ .हमारे जौनपुर जनपद में ही मई ग्राम पंचायत के अर्न्तगत एक अनोखा स्थान है ,वह है राउर बाबा की ऐतिहासिक सिद्ध पीठ , जहाँ केवल साल में एक बार लोग गंगा दशहरा के आस-पास ७ दिनों के लिए भारी संख्या में जुटते हैं ,पवित्र सरोवर की परिक्रमा करतें हैं (जिस सरोवर में मैंने कभी पानी नहीं देखा )और उद्देश्य केवल और केवल भूत -प्रेत से मुक्ति ।
राउर बाबा कौन थे ,इनकी ऐतिहासिकता क्या है ,मैं अभी तक पता नहीं कर पाया .कारण संभवतः यही है कि इसका कोई संकेतक साक्ष्य मुझे अभी तक प्राप्त नहीं है लेकिन यहाँ पर जुटने वाली भारी भीड़ बहुत कुछ कह जाती है .इस पूरे मेला परिसर में चाय -पान की दुकानों से ज्यादा ओझाओं और तांत्रिकों की दुकानें सजती हैं .भूत -प्रेत से मुक्ति पानें की आशा में आये हुए लोंगों से बात -चीत करनें पर पता चला कि यहाँ आने मात्र से भूत -पिशाच जल कर नष्ट हो जाते हैं।
 राउर बाबा के समाधि के ऊपर पार्वती -सरस्वती की प्रतिमा है .बाबा की समाधि के पीछे उनकी पत्नी सती भुनगा की समाधि है .वही पर सटीहुई हनुमान जी की भी मूर्ति है .परिसर में श्री राम चन्द्र जी -लक्ष्मन-सीता जी की भी मूर्तियाँ हैं .जनश्रुति के अनुसार प्रभु श्री राम चन्द्र जीद्वारा सभी तीर्थों से लाये गए जल को इस सरोवर में डाला गया है इस लिए गंगा दशहरा के दिन इस पवित्र सरोवर का जल अमृत मय होताहै .इस स्थान को "राम गया "भी कहा जाता है .कहा जाता है कि १५० वर्ष पूर्व मीरजापुर के हर सुख दास मोहता का पूरा परिवार प्लेग कीबीमारी के चलते नष्ट हो गया था तब राउर बाबा की कृपा से ही उनका वंश आगे चल पाया ,अपनी मृत्यु के पूर्व हर सुख दास मोहता नेंअपने परिवारी जनों को यह निर्देश दिया था कि प्रतिवर्ष ज्येष्ठ मास शुक्ल पक्ष दशमी तिथि को मेरे समस्त वंशज गंगा दशहरा के दिनबाबा के दरबार में आयेंगे .मैंने भी देखा कि उस परिवार के सभी सदस्य इस मेले में आये थे .खास बात यह है कि अब यह परिवार काफी बढ़चुका है और देश के कई प्रान्तों में निवास कर रहा है लेकिन आस्था ऐसी कि सब के सब बाबा की समाधि की पूजा में लीन थे .इस मेले मेंआने वाले लोग स्थानीय कम होतें हैं लेकिन कोलकाता,मुंबई ,कटक ,भुवनेश्वर ,रायपुर और विजय नगर आदि स्थानों से काफी लोग इसमेले में आते हैं . एक सप्ताह तक चलनें वाले इस मेले में हर जगह केवल ओझाई और भूत -प्रेत के निवारण का ही चक्कर दिखाई पड़ता है.गंगा दशहरा कें दिन मेला अपनें चरम पर होता है फिर दो -तीन बाद तक समाप्त हो जाता है .और सबसे खास बात यह कि यह एक मामलेमें अनोखा है कि यहाँ पुरोहित का कार्य ब्राह्मण नहीं करते ,यहाँ पर पुरोहित परम्परागत रूप से एक परिवार का होता है जो कि पिछडी जाति(बिन्द )है

यहाँ भूतों को उतरने की क्रिया देख कर मैं दंग हूँ .इस परिसर में कैमरा लेकर घूमना खतरे से खाली नहीं है .मेरे साथ एक सम्मानित हिन्दी दैनिक के पत्रकार ओंकार जी हैं उन्होंने सारी तस्वीरों को चुपके -चुपके लिया .कोई देख लेता तो मुसीबत थी ,तब भी हम लोग बेहतरीन दृश्यों को अपने कैमरे में कैद नहीं कर पाए .यह हमारे इक्कीसवीं सदी के भारत की तस्वीर है ऐसे में हम भाई जाकिर जी को क्या बताएं .अभी ज्ञान का सूरज लगता है लम्बा समय लेगा उदय होनें में 

क्या लिखा है जौनपुर किले में बने खम्बों में ?

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fortjaunourजौनपुर शहर में गोमती तट पर स्‍थि‍त इस दुर्ग का र्नि‍माण फि‍रोज शाह ने 1362 में कराया था। इस दुर्ग के भीतरी फाटक 26.5 फीट उंचा तथा 16 फीट चौड़ा है। केन्‍द्रीय फाटक 36 फीट उंचा है। इसके उपर एक वि‍शाल गुम्‍बद बना है। वर्तमान में इसका पूर्वी द्वार तथा अन्‍दर की तरफ मेहराबे आदि‍ ही बची है, जो इसकी भव्‍यता की गाथा कहती है। इसके सामने के शानदार फाटक को मुनीम खां ने सुरक्षा की दृष्‍टि‍ से बनवाया था तथा इसे नीले एवं पीले पत्‍थरों से सजाया गया था। अन्‍दर तुर्की शैली का हमाम एवं एक मस्‍जि‍द भी है। इस दुर्ग से गोमती नदी एवं नगर का मनोहर दृश्‍य दि‍खायी देता है। इब्राहि‍म बरबक द्वारा बनवाई गई मस्‍जि‍द की बनावट में हि‍न्‍दु एवं बौद्ध शि‍ल्‍प कला की छाप है.W.W. Hunter ने लिखा की गोमती के दखिनी किनारे पे बना किला एक टीले पे पत्थरों की दीवारों से बना किला है जिसमे बौद्ध और हिन्दू मदिरों से निकाले गए पथ्थरों का इस्तेमाल किया गया है |




किले में तुर्की हमाम जिसे भूलभुलैया भी कहा जाता है उसके करीब एक बंगाली तरीके की मस्जिद भी मौजूद है और उसी के पास एक मीनार है जिसपे इसे बनाने वाले इब्राहीम नयेब बर्बक का नाम १३७७ खुदा हुआ है |

किले के बारी रास्ते पे एक 6 फीट लम्बा खम्बा है जिसपे  पर्शियन में 17 लाइन लिखी है |अक्सर लोग यह समझ लेते हैं की इस खम्बे पे कुरान की कोई आयात लिखी है | जबकि ऐसा नहीं है यहाँ एक शपथ लिखी है जो हिन्दुओं को राम गंगा और त्रिवेणी के नाम पे दिलवाई गयी है और मुसलमानों को अल्लाह और उसके पैगम्बर हजरत मुहम्मद (स.अ.व) के नाम पे दिलवाई गयी है | और वादा खिलाफी करने वाले को नरक का भागिदार बताया गया है |

पूर्वाचंल के लोगो का मुख्य आस्था का केद्र माॅं शीतला चौकियां धाम |

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पूर्वाचंल के लोगो का मुख्य आस्था का केद्र माॅं शीतला चौकियां धाम का कही कोई ठोस प्रमाण या इतिहास नही मिलता। इतिहासकारों ने मंदिर की बनावट और तालाब के अधार पर आदेशा जताते हुए लिखा हैं कि यह मंदिर काफी प्राचीन हैं। शिव और शक्ति की उपासना प्राचीन भारत के समय से चली आ रही हैं। इसी अधार पर माना जाता हैं कि हिन्दू राजाओं के काल में जौनपुर का अहीर शासकों के हाथ में था।
  जौनपुर का पहला शासक हीराचंद्र यादव माना जाता हैं। माना जाता हैं कि चौकियां देवी का मंदिर कुल देवी के रूप में यादव या भरो द्वारा निर्मित कराया गया लेकिन भरों की प्रवृत्ति को देखते हुए लगता हैं इस मंदिर के निर्माण भरो ने ही कराया होगा। भर अनार्य थे। अनार्यो में शक्ति और शिव पूंजा होती थी। जौनपुर में भरो का अधिपत्य भी था। पहले इस मंदिर की स्थापना चबूतरे पर की गयी होगी, संभवतः इसी कारण से इन्हे चौकियां देवी कहा जाता हैं। शीतलता और आनन्दायनी की प्रतीक मानी जाती हैं। इसी लिए इनका नाम शीतला पड़ा। ऐतिहासिक प्रमाण इस बात के गवाह है कि भरों तालाब बनवाने की प्रवृत्ति थी इस लिए उन्होने शीतला मंदिर के पास तलाब का भी निर्माण कराया गया। इस दरबार में सोमवार और शुक्रवार को तथा नवरात्री में दिन भर श्रध्दालु मत्था टेकते हैं।






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जौनपुर में बिजली की अनियमितता यहाँ की तरक्की में एक बहुत बड़ी बाधा है |

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जौनपुर में बिजली की अनियमितता कोई नयी बात नहीं | कमाल तो यह है की बिजली कब आएगी और कब जाएगी इस बात का किसी को पता नहीं रहता |  गर्मी आने के साथ तो यह समस्या इतनी गंभीर हो जाती है की सहन नहीं होता | कारण बताया जाता है ओवरलोड से  ट्रांसफार्मर फुक जाते हैं | एक बार दिक्कत आ गई तो कब दुरुस्त होगी कुछ कहा नहीं जा सकता।

बिजली की समस्या ने गंभीर रूप लेना शुरू कर दिया है | बोर्ड सहित अन्य परीक्षाएं शुरू होने वाली हैं। ऐसे में छात्र पढ़ाई पर एकाग्र है। लिहाजा बिजली नहीं मिलने से काफी दिक्कत झेलनी पड़ रही है। परीक्षार्थी लालटेन और ढिबरी के सहारे पढ़ाई कर रहे हैं।


इसके अलावा किसानों को भी काफी समस्या का सामना करना पड़ रहा है। डीजल इतना महंगा हो गया है कि इंजन चलाने की हिम्मत नहीं पड़ रही है। बिजली भी जरूरत के हिसाब से नहीं मिल रही है। लिहाजा सिंचाई में समस्या खड़ी हो गई है।

न जाने कितने नेता आये कितने चले गए ,कितनी पार्टियाँ आयी और कितनी यहाँ की बिजली व्यवस्था को दुरुस्त करने की बात करती चली गयी लेकिन यह समस्या हल होने की जगह दिन बा दिन गंभीर रूप लेती जा रही है |

यह बात सभी जानते हैं की जौनपुर में यह बिजली की अनियमितता ,यहाँ की तरक्की में एक बहुत बड़ी बाधा है | बस  एक आशा है की एक दिन कोई नेता उभरेगा और जौनपुर की इस समस्या का हल दे के इसकी तरक्की का कारन बनेगा |

यह सूर्यदेव की सबसे बड़ी प्रतिमा हो सकती है |

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जौनपुर जिले से ५० किलोमीटर पश्चिम प्रतापगड कि सीमा पर  स्थित महाराजगंज थाना क्षेत्र के बगैझार रामकोला गाव में कन्जरीवीर का मंदिर है २ मीटर  उचे टीले पर स्थित मंदिर में भगवन सूर्यदेव की प्रतिमा है, बलुए पत्थर को तरासकर बनाया गया यह विशाल सूर्य प्रतिमा की लम्बाई २५० सेमी, चोड़ाई ११० सेमी तथा मोटाई ३७ सेमी है ] प्रतिमा में सूर्य की चारो  पत्नियां  उषा, प्रतुषा, राज्ञी तथा निक्छुमा को दर्शाया गया है इसके अलावा सूर्य के मूर्ति के पैरों के मध्य में मुकुत्धारिनी एक देवी को प्रदर्शित किया गया है  सम्भावना है कि यह भू देवी महाश्वेता हो सकती है। दुर्भाग्य इस बात का है कि मूर्ति में घुटने के ऊपर का सम्पूर्ण काया खंडित अवस्था में है इस मंदिर व  मूर्ति के बारे में १८ अगस्त २०११ को ब्गैझार गाव निवासी डा.अजब नारायण उपाध्याय ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण  पटना अंचल को पत्र लिखा पुरातत्वविद पटना शंकर शर्मा ने उप अधीक्षण  पुरातत्वविद को सर्वेक्षण के लिए भेजा पुरातत्वविद ने जो रिपोर्ट भेजा उसमे लिखा  है कि यह मूर्ति ज्यो की त्यों अवस्था में है जो पुरातात्विक एवं वैज्ञानिक अध्ययन के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है।|

 महाराजगंज क्षेत्र में  कन्जतीवीर मंदिर में स्थापित है देश सबसे बड़ी भगवान सूर्य की प्रतिमा। प्रतिमा को देखने के लिए खुद पुरातत्व विभाग के अधिकारियो  ने  मौके  पर पहुंच कर सर्वेक्षण किया।  विभाग के अधिकारियो ने सम्भावना जताया है कि देश में अब तक की यह सबसे बड़ी सूर्यदेव की मूर्ति हो सकती है|

जौनपुर पर्यटकों की पहली पसंद बन सकता है|

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महर्षि यमदग्नि की तपोस्थली व शार्की सल्तनत की राजधानी कहा जाने वाला प्राचीनकाल से शैक्षिक व ऐतिहासिक दृष्टि से समृद्धिशाली शिराजे हिन्द जौनपुर आज भी अपने ऐतिहासिक एवं नक्काशीदार इमारतों के कारण न केवल प्रदेश में बल्कि पूरे भारत वर्ष में अपना एक अलग वजूद रखता है | बड़े पैमाने परदेशी-विदेशी पर्यटकों को आकर्षित करने की ताक़त इस शहर में आज भी है। नगर के ऐतिहासिक स्थलों में प्रमुख रूप से अटाला मस्जिद, शाहीकिला, शाही पुल, झंझरी मस्जिद, बड़ी मस्जिद, चार अंगुली मस्जिद, लाल दरवाजा, शीतला धाम चौकिया, महर्षि यमदग्नितपोस्थल, राजा जयचंद  के किले का भग्नावशेष आदि आजभी अपने ऐतिहासिक स्वरूप एवं सुन्दरता के साथ मौजूद है।यहाँ के ऐतिहासिक स्थलों के करार बियर का मंदिर,शीतला चौकिय, मैहर देवी का मदिर, बड़े हनुमान का मंदिर ,शाही किला, बड़ी मस्जिद, अटला मस्जिद , खालिस मुखलिसमस्जिद,झझरी मस्‍जि‍द-, लाल दरवाज़ा, शाह पंजा ,हमजापुर का इमामबाडा ,सदर इमामबाडा ,बारादरी ,मकबरा ,राजा श्री कृष्‍ण दत्‍तद्वारा धर्मापुर में निर्मित शिवमंदिर, नगरस्‍थ हिन्‍दी भवन, केराकत में काली मंदिर, हर्षकालीन शिवलिंगगोमतेश्‍वर महादेव (केराकत), वन विहार, परमहंस का समाधि स्‍थल(ग्राम औका, धनियामउ), गौरीशंकर मंदिर (सुजानगंज), गुरूद्वारा(रासमंडल), हनुमान मंदिर(रासमंडल),शारदा मंदिर(परमानतपुर), विजेथुआ महावीर, कबीर मठ (बडैया मडियाहू) आदि महत्‍वपूर्ण है।जौनपुर शहर की 6 फीट लम्बी मूली ,जमैथा का खरबूजाबहुत मशहूर है | यहाँ की बेनीराम की इमरती देश विदेश तक जाती है | तम्बाकू और मक्के की खेती यहाँ अधिक होती है |सूती कपडे ,इत्र और चमेली के तेल के उद्योग के लिए जौनपुर बहुत प्रसिद्ध है |


देश की सांस्कृतिक राजधानी के रूप में प्रचलित काशी जनपद के निकट होने के कारण अक्सर पर्यटक यहाँ का रुख भी करते हैं और इसकी सराहना भी करते हैं लेकिन स्तरीय सुविधाओं के अभाव में पर्यटक न तो यहाँ ठीक से घूम पाते हैं और न ही यहाँ कुछ दिनों तक रह पाते हैं | हालांकि जनपद को पर्यटक स्थल के रूप में घोषित कराने का प्रयास कुछ राजनेताओं व जिलाधिकारियों द्वारा किया गया लेकिन वे प्रयास फिलहाल ना काफी ही साबित हुये।ऐसा कहा जाता है कि जौनपुर में इब्राहिमशाह शर्की के समय में इरान से लगभग एक हज़ार आलिम (विद्वान) आये थे जिन्होंने पूरे भारत में जौनपुर को शिक्षा का केंद्र बना दिया था | उस समय न सिर्फ भारत से बल्कि तमाम पड़ोसी देशों से लोग 'उर्दू'की शिक्षा ग्रहण करने के लिए जौनपुर का रूख करने लगे और वही समय था जब मुग़ल बादशाह शाहजहाँ ने जौनपुर को 'शिराज-ए-हिंद'की उपाधि से नवाज़ा |१७वीं एवं १८वीं शताब्दी में जौनपुर की ख्याति 'सूती वस्त्र'और 'महकते इत्र'के लिए पूरे देश में ऐसी फैली कि आज भी कहीं 'इत्र'का जिक्र आने पर जौनपुर का नाम जरूर लिया जाता है | जौनपुर जहाँ १५वीं शताब्दी में 'महादेवी आन्दोलन'में अगुवा बना वहीँ शर्की शासक 'हुसैन शाह शर्की'के समय में 'रागो हुसैनी' , 'कान्हारा'एवं 'टोडी'जैसी रागिनियों का उद्गम स्थान भी बना | किवदंती है कि प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में 'रोटी और कमल'रुपी प्रतीक की योजना जौनपुर के मौलाना करामात अली की ही थी |आज जौनपुरमें गंगा जमुनी तहजीब और साम्‍प्रदायि‍क सदभावको महसूस किया जा सकता है | पुराने मंदिरों,मस्जिदोंऔर इमामबाड़ोंने इसे हर तरफ से सजाया हुआ है | दशहरा दिवाली में नवरात्री,दुर्गा पूजा और रमजान ,मुहर्रम में इफ्तारी और अज़ादारी का माहोल रहता है और ऐसा लगता है पूरा जौनपुर इसके रंग में रंग गया है|


महाभारत काल में वर्णित महर्षि यमदग्नि की तपोस्थली जमैथा ग्राम जहां परशुराम ने धर्नुविद्या का प्रशिक्षण लिया था। गोमती नदी तट परस्थित वह स्थल आज भी क्षेत्रवासियों के आस्था का केन्द्र बिन्दु बना हुआ है। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि उक्त स्थल के समुचित विकास को कौन कहे वहां तक आने-जाने की सुगम व्यवस्था आज तक नहीं की जा सकी है|मार्कण्डेय पुराण में उल्लिखित 'शीतले तु जगन्माता, शीतले तु जगत्पिता, शीतले तु जगद्धात्री-शीतलाय नमोनम:'से शीतला देवी की ऐतिहासिकता का पता चलता है। शीतला माता का मंदिर स्थानीय व दूरदराज क्षेत्रों से प्रतिवर्ष आने वाले हजारों श्रद्घालु पर्यटकों के अटूट आस्था व विश्वास काकेन्द्र बिन्दु बना हुआ है लेकिन इसके भी सौन्दर्यीकरण की और लोगों का ध्यान नहीं जाता और यदि कभी जाता भी है तो सरकारी फाइलों में दब के रह जाता है |


शहर को उत्तरी व दक्षिणी दो भागों में बांटने वाले इस पुल का निर्माण मध्यकाल में मुगल सम्राट अकबर के आदेशानुसार मुनइम खानखानाने सन् 1564 ई. में आरम्भ कराया था जो 4 वर्ष बाद सन् 1568 ई. में बनकर तैयार हुआ। सम्पूर्ण शाही पुल 654 फिट लम्बा तथा 26 फिटचौड़ा है, जिसमें 15 मेहराबें है, जिनके संधिस्थलपर गुमटियां निर्मित है। बारावफात, दुर्गापूजा व दशहरा आदि अवसरों पर सजी-धजीगुमटियों वाले इससम्पूर्ण शाही पुल की अनुपम छटा देखते ही बनती है। इस ऐतिहासिक पुल में वैज्ञानिक कला का समावेश किया गया है। स्नानागृह से आसन्न दूसरे ताखे के वृत्तपर दो मछलियां बनी हुई है। यदि इन मछलियों को दाहिने से अवलोकन किया जाय तो बायीं ओर की मछली सेहरेदार कुछ सफेदी लिये हुए दृष्टिगोचर होती है किन्तु दाहिने तरफ की बिल्कुल सपाट और हलकी गुलाबीरंग की दिखाई पड़ती है। यदि इन मछलियों को बायीं ओर से देखा जाय तो दाहिने ओर की मछली से हरेदारतथा बाई ओर की सपाट दिखाई पड़ती है। इस पुल की महत्वपूर्ण वैज्ञानिक कला की यह विशेषता अत्यन्तदुर्लभ है।



जौनपुर शहर के उत्तरी क्षेत्र में स्थित शाही किला मध्य काल में शर्की सल्तनत की ताकत का केन्द्र रहा है| विन्ध्याचल से नेपाल,बंगाल और कन्नौज से उड़ीसा तक फैले साम्राज्य की देखरेख करने वाली शर्की फौजों का मुख्य नियंत्रण यहीं से होता था.पुराने केरारकोट को ध्वस्त करके शाही किला का निर्माण फ़िरोज शाह ने करवाया था.स्थापत्य की दृष्टि से यह चतुर्भुजी है और पत्थरों की दीवार से घिरा हुआ है.किले के अन्दर तुर्की शैली का एक स्नानागार है जिसका निर्माण इब्राहिम शाह ने कराया था|


गूजर ताल- खेतासराय से दो मील पश्चिम में प्रसिद्ध गूजरताल है, जिसमें आज कल मत्‍स्‍य पालन कार्य हो रहा है। इसका चतुर्दिक वातावरण सुरम्‍य प्राकृतिक है। अटाला मस्जिद, बड़ी मस्जिद,लाल दरवाज़ा, राजा  जौनपुर की कोठी,शाही पुल, राजा सिग्रमाऊ की कोठी, इमाम पुर का इमामबाडा, सदर इमाम बाड़ा, चार ऊँगली मस्जिद, बरदारी, कलीचाबाद का मकबरा, इत्यादि बहुत से आलिशान इमारतें इस शहर की शोभा आज भी बाधा रही हैं | उपर्युक्‍त इमारतों के अलावा यहॉ मुनइम खानखाना द्वारा निर्मित शाही पुल पर स्थित शेर की मस्जिद तथा इलाहाबाद राजमार्ग पर स्थित ईदगाह, मोहम्‍मद शाह के जमाने में निर्मित सदर इमामबाड़ा, जलालपुर का पुल, मडियाहू का जामा मस्जिद, राजा श्री कृष्‍ण दत्‍त द्वारा धर्मापुर में निर्मित शिवमंदिर, नगरस्‍थ हिन्‍दी भवन, केराकत में काली मंदिर, हर्षकालीन शिवलिंग गोमतेश्‍वर महादेव (केराकत), वन विहार, परमहंस का समाधि स्‍थल(ग्राम औका, धनियामउ), गौरीशंकर मंदिर (सुजानगंज), गुरूद्वारा(रासमंडल), हनुमान मंदिर(रासमंडल), शारदा मंदिर(परमानतपुर), विजेथुआ महावीर, कबीर मठ (बडैया मडियाहू) आदि महत्‍वपूर्ण है।

डर है कि कहीं हिंद का 'शिराज'इतिहास के पन्नों में ही दफ़न होकर न रह जाये | बकौल इकबाल साहब ............


न संभलोगे तो मिट जाओगे ऐ हिन्दोस्तां वालों ;

तुम्हारी दास्ताँ भी न होगी इन दास्तानों में |

कुछ गाँव हैं बदहाल हिन्दुस्तान की आजादी से अब तक |

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सरकार प्रदेश का सर्वागीण विकास करने का दावा कर रही है। शहर से लेकर ग्रामीण इलाके तक हर सुविधाओं सुलभ कराने का काम किया जा रहा है। वही आजादी के छह दशक बाद भी विकास खंड का पल्टूपुर व खड़वा गांव पूर्ण रूप से उपेछित है। इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इन गांवों के लोगों को घर से बाहर निकलने के लिए बसुही नदी पार करके जाना होता है। जहां बास का पुल बनाया है। जिसे लोग अपनी जान जोखिम में डालकर ही पार करते है।

ब्लाक मुख्यालय से करीब दस किमी दूर स्थित पल्टूपुर व खड़वा गांव स्थिति है। गांव में आने-जाने के लिए कच्ची सड़क ही है। जबकि बीच से बसुही नदी गुजरी है। जिस पर ग्रामीणों ने बांस का पुल बना दिया है। यह स्थिति आजादी के पहले से ही बनी हुई है। इसी रास्ते से प्रतिदिन छात्र-छात्राएं सहित अन्य ग्रामीण अपने काम से गांव के बाहर निकलते है। ग्रामीणों को सबसे ज्यादा दिक्कत बारिश में होती है। जब नदी में पानी होने के कारण उक्त पुल डूब जाता है। मजबूरी में ग्रामीणों को छह से सात किमी दूर गणेशपुर गांव होते हुए जाना पड़ता है। जिसे लेकर ग्रामीण काफी चिंतित रहते है। उनका कहना है कि जनप्रतिनिधि वोट लेने के लिए चुनाव के समय आते है और इस समस्या का का निदान करने का वादा कर चले जाते है। मगर वह अपने वायदे को भूल जाते है।


गांववाले यदि सरकारी  तंत्र के सहारे बैठे रहे तो शायद इस पुल का निर्माण कभी ना हो सके | आवश्यकता है गाव वालों को मिल के एक साथ एक दुसरे के  सहयोग से इसके लिए आवाज़ उठाने की | मुझे याद आया की पिछली बार जब मैं कांग्रेस जिला अध्यछ श्री लालजीत चौहान जी से मिला था तो उन्होंने ने बताया था की उनके बचपन में उनके गाँव सैदपुर गडौर में ऐसी ही एक नाले को पार करते हुए वो पढने जाया करते थे | और उन्होंने प्रण किया था की यदि किसी काबिल बना तो सबसे पहले इस नाले पे पुल बनाऊंगा | और उन्होंने यह कर दिखाया |

श्री लालजीत चौहान जौनपुर जिले के सैदपुर गडऊर के रहने वाले हैं और अपनी प्राथमिक शिक्षा अपने गाँव से ही प्राप्त की | बचपन में जब नेता जी अपने स्कूल जाते थे जो की एक डेढ़ किलोमीटर उनके घर से दूर था | उस स्कूल के रास्ते में एक नाला पड़ता था जिसे पार करवाने के लिए उनके घरवाले उनको अपने कंधे पे ले जाया करते थे | नेता जी को समाज के लिए कुछ करने की प्रेरणा वंही से मिली और उन्होंने सोंचा यदि मैं बड़ा हो कर कुछ करने लायक बन सका तो सबसे पहले तो इस नाले पे पुल बनवाऊंगा और जैसा उन्होंने प्रण किया था वैसा किया भी | वो नाला और वो उनका गाँव के लोगों के सहयोग से उनके श्रमदान से बनवाया पुल आज भी मौजूद है जिसे उनके गाँव सैदपुर गडऊर जा के मैंने खुद देखा |श्रमदान से बनी इस पुलिया को बाद में एक किलोमीटर की सड़क से जोड़ा गया जो गाँव ने अंदरूनी छोर तक को जोडती है |

गांववालों को श्री लालजीत चौहानसे प्रेरणा लेते हुए ऐसा ही कोई क़दम उठाना चाहिए |

डोलियाँ इतिहास के पन्नो से

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चलो रे डोली उठाओं कहार पिया मिलन की ऋतु आयी। अब ये गाने और डोली, सिनेमा और किताबों में ही दिखाई पड़ती हैं। तेजी से बदलते जमाने ने जहां हमारी संस्कृति पर कुठाराघात किया है वही प्राचीन परम्परा को किस्से कहानियां और इतिहास के पन्नो पर पहंुचा दिया हैं। इसी में से एक हैं डोली और कहार। तीन दषक पूर्व तक वैवाहिक जीवन में प्रवेष करने के लिए दूल्हे डोली में सवार होकर जाते थे और शादी की रस्म पूरी होने के बाद दूल्हन उसी डोली में बिदा होकर ससुराल आती थी। डोली को लेकर न जाने कितने ही गीत में बनाए गए। दिखाए गए। डोली जिसपर बैठ कभी हर दुल्हन अपने पिया के घर पहली बार आती थी। इतिहासकारों का कहना है कि डोलियों का रिवाज मुगलकाल से चलन में आया पर इससे पहले ही रामायण मंे इसका जिक्र आता है। रामायण में कहा गया है कि जब त्रेतायुग में भगवान राम ने षिव का धनुष तोड़ जनकनंदनी सीता से विवाह रचाया तो सीता मइया डोली में बैठकर ही अयोध्या गयी थी।लेकिन इस आधुनिकता के बदलते दौर में दूल्हे के जोड़े जामे की जगह सूट और शेरवानी ने ले लिया और डोली की जगह लग्जरी गाडि़यों ने ले लिया है। ऐसी स्थिति में अब डोलियां इतिहास के पन्नो पर पहुंच गयी और कहार रोजी रोटी की जुगाड़ में महानगरों का रास्ता पकड़ लिया हैं।

शाहगंज की बारादरी की बदहाल हालत |

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जौनपुर जिला मे ६ तहसिल है - शाहगंज, बदलापुर, मछलीशहर, जौनपुर, मडियाहु और केराकत, ३ लोकसभा सीट(एक जौनपुर जिले में पूरी तरह से है, जबकि अन्य दो मछलीशहर और सईदपुर जिले के कवर हिस्सा है)।१० विधान सभा निर्वाचन क्षेत्र है। जिले को २१ विकास खंड में विभाजित किया गया है-सोंधी(शाहगंज), सुइथाकला, खुटहन, कारंजाकला, बदलापुर, महाराजगंज, सुजानगंज, बक्शा, मुंगरा बादशाहपुर, मछलीशहर, मडियाहूँ, बरसठी, रामपुर, रामनगर, जलालपुर, केराकत, डोभी, मुफ्तीगंज, धर्मापुर, सिकरारा और सिरकोनी । इसके अलावा जिले को 27 थानाओ में बांटा गया है।-कोतवाली, सदर, लाइन बाजार, जाफराबाद, खेतासराय, शाहगंज, सर्पताहन, केराकत, चंदवक, जलालपुर, सरायख्वाजा, गौर बादशाहपुर, बदलापुर, खुटहन, सिंग्रमाऊ, बक्शा, सुजानगंज, महाराजगंज, मुंगरा बादशाहपुर, पवारा, मछलीशहर, मीरगंज, सिकरारा, मडियाहूँ , रामपुर, बरसठी, नेवाधिया और सुरेरी|

जौनपुर की तहसील शाहगंज नगर भौगोलिक व ऐतिहासिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। बौद्ध परिपथ के रूप में इसी नगर से होकर लुम्बिनी-दुद्धी राजमार्ग गुजरता है। स्वतंत्रता संग्राम में यहां के नौजवानों ने अंग्रेजों के छक्के चुदा दिए थे |शाहगंज को सिराजुद्दौला ने बसाया। शाह हजरत अली के सम्‍मन मे उसने एक बारादरी और एक ईदगाह का र्नि‍माण कराया। जनपद की सीमा पर बि‍जेथुआ महावीर का मंदि‍र भी है। इस मंदि‍र के बारे में कहा जाता है कि‍ हनुमान का पैर धरती में कहां तक है पता नही लगाया जा सका। पास में मकरी कुण्‍ड भी है जहां हनुमान ने कालि‍नेम को मारा था|



इसी नगर के एराकियाना मोहल्ले में बारादरी की एक ऐतिहासिक धरोहर है। इस बारह दरवाजे वाले धरोहर का निर्माण सिराजुद्दौला ने कराया था। यहां पर उसके सैनिक ठहरते थे। इसी भवन के पीछे एक पोखरी भी है। इसमें स्नान आदि किया जाता था। समय के साथ यह ऐतिहासिक भवन जर्जर होता गया। आज खंडहर के रूप में कुछ अवशेष हैं।

सिनेमा जगत में छाया राग जौनपुरी |

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शिराजे हिन्द की सरजमी जौनपुर की धरती को शर्की बादशाहों ने राजधानी बनाकर इसकी सीमा दूर दूर तक फैलाई थी और यहां दर्जना इमारतों का निर्माण भी कराया था। यह तो हर जगह आप को किताबों में मिल जायेगी। लेकिन के शर्की शासन के आखिरी सुल्तान  हुसेन शाह  ने जौनपुरी राग का इजात किया था यह संगीत के सम्राटों के अलावा किसी को शायद ही पता हों। आज भी जौनपुरी राग का इस्तेमाल हिन्दी फिल्मों में किया जा रहा हैं।



जौनपुर में एक मंच पर अपने आवाज का जादू विखेर रहा यह कलाकार जो गीत गुनगुना रहा है वह जौनपुरी राग है। इस राग का इजात आज से करीब छः सौ वर्ष पूर्व जौनपुर के बादशाह हुसेन शाह ने किया था। शर्की शासन काल के समाप्त हुए छः वर्ष  बीत गये है लेकिन आज भी जौनपुरी राग भारतीय सिनेमा में पूरी तरह छाया हुआ हैं।



काजल फिल्म में आशा  भोंषले  द्वारा गाया गया तोरा मन दर्पण कहलाएं स्वर्ण सुन्दरी फिल्म में कुहु कुहु बोले कोयलिया और मेरे हुजुर में फिलमाया गया झनक झनक बाजे तोरी पायलिया समेत अनगिनत फिल्मों जौनपुरी राग में गाने गाये गये हैं।

हुसेन शाह ने इस राग को पूरी दुनियां फैलाने के लिय कुछ डफालियों को पुरानी बाजार मोहल्ले बसाकर उन्हे टेªनिगं देकर पूरे देश में भेजा करते थें। जौनपुरी राग जहां फिल्मकार करते चले आ रहे हैं। वही गजल गायकों ने भी इस राग को अपनाया। पाकिस्तानी गजल सम्राट शाकीर भी करते आ रहे हैं। उनकी विश्व  विख्यात गजल कु ब कु फैल गयी बात सनासाई की उसने खु”बू की तरह मेरी पांजराई की में प्रयोग किया गया।



सुल्तान हुसेन शाह  ने जौनपुरी राग के अलावा एक किताब भी लिखी थी। हलांकि किताब का जिक्र केवल इतिहास के पन्नो पर ही दिखता हैं। अब जरूरत हैं। इस राग को बचाने की।


पंडित नखील बनर्जी राग जौनपुरी

लल्लन यादव MLC चुनाव में सपा प्रत्याशी घोषित |

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जौनपुर। समाजवादी पार्टी हाई कमान ने मंगलवार को विधान परिषद सदस्य के प्रत्याशियों की सूची जारी कर दिया। पार्टी सूत्रों के अनुसार जौनपुर से लल्लन प्रसाद यादव को एमएलसी पद का प्रत्याशी बनाया गया है। इसकी जानकारी होने पर श्री यादव के परिवार, समर्थकों सहित समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं में खुशी की लहर दौड़ गयी। मालूम हो कि श्री यादव इसके पहले सपा से विधान परिषद सदस्य के पद पर निर्वाचित हो चुके हैं।


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राजा इदारत जहां और १८ सितम्बर सन १८५७ जनक्रांति आज़मगढ़ में |

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१८ सितम्बर सन १८५७ को कर्नल रिफ्टन को ये खबर लगी की आज़मगढ़ में कुछ लोगों ने आज़ादी का एलान कर दिया है तो उसने तुरंत कैप्टेन बाॅइलो को ११०० गोरखा फ़ौज इस बगावत के दमन के लिए साथ भेजी । इस बगावत का सेहरा जाता था सैयद इदारत जहां के सर जो पहले जौनपुर, आज़मगढ़,सुल्तानपुर,प्रतापगढ़ ,और फैज़ाबाद का उप प्रबंधक थे  ।

सन १८५७ में अवध के नवाब वाजिद अली शाह की पदोन्नति हुयी और अवध प्रांत अंग्रेज़ों के शाासन में शामिल हो गया इस घटना ने ताल्लुकेदारों,राजाओं और नवाबो को चिंतिति कर दिया और हर एक सोंचने लगा एक दिन उसके साथ भी ऐसा ही होगा ।

१८५६ ईस्वी में बांदा ने नवाब के यहां शादी के अवसर में एक मीटिंग राजाओं की हुयी जिसमे ये तय पाया गया की अंग्रेज़ों से बलपूर्वक लड़ा जाएगा और दिल्ली के बादशाह बहादुर शाह ज़फर को  बादशाह स्वीकार कर लिया जाय ।

राजा इदारत जहां को जौनपुर ,आज़मगढ़ ,बनारस, बलिया, तथा मिर्ज़ापुर प्रबध के लिए सौंपा गया ।  जब अंग्रेज़ों ने राजा इदारत जहां से मालग़ुज़ारी मांगी तो उन्हने इंकार कर दिया और कहा हमने दिल्ली के बादशाह बहादुर शाह ज़फर को  बादशाह स्वीकार कर लिया है और  से मालग़ुज़ारीउन्ही को दी जाएगी ।


इस अस्वीक्रति पे अंग्रेज़ों ने जौनपुर के शाही क़िले पे जो राजा इदारत जहां की सत्ता का केंद्र था उसपे हमला कर दिया । राजा इदारत जहां उस समय चेहल्लुम के सिलसिले में मुबारकपुर गए हुए थे लेकिन दीवान महताब राय से अंग्रेजी फौज का सामना हो गया जो बहुत बहादुरी से लड़े लेकिन बाद में क़ैद कर लिए गए । इस झड़प में बहुत से लोग शहीद  हुए जिनकी क़ब्रें आज भी क़िले में मिलती हैं । शाही क़िले को इस झड़प में बहुत नुकसान हुआ ।


महताब राय ने अंग्रेज़ो से कहा की उनके हाथ   में कुछ नहीं है और राजा इदारत जहां मुबारकपुर गए हुए हैं आप उनसे ही बात कर लें । अंग्रेज़ो ने २७ सितमबर को एक तोपखाना सहित फ़ौज मुबारकपुर  भेज दी । दीवान महताब राय के दरिया के रास्ते से मुबारकपुर ले जाय  गया । राजा इदारत जहां को जब ये मालूम हुआ तो उन्होंने ने अपने सैनिक और सेनापतियों अमर सिंह और मखदूम बक्श को मुकाबले के लिए भेजा जिसने दीवान महताब राय को आज़ाद करवा लिया ।

मुबारकपुर में ये युद्ध चार दिनों तक चला । राजा इदारत जहां के बेटे मुज़फ्फर जहां ने महल की तहसील और थाने पे क़ब्ज़ा कर लिया । राजा फ़साहत से तिघरा नामक स्थान पे झड़प हुयी और अंग्रेज़ो को लगा की लड़ के इन पे   तो उसने संधि प्रस्ताव रखा ।

 राजा फ़साहत भी संधि के लिए तत्पर हो गए और इस संधि पे प्रस्ताव ये था की राजा इदारत जहां का वो सब छेत्र वापस किया जाएगा जिनपे अंग्रेज़ो का क़ब्ज़ा है ।

राजा इदारत जहां भी  इस संधि के लिए तैयार हो गए और मोजीपुर क़िले और मुबारकपुर के मध्य एक आम के बाग़  में ज़ुहर  के बाद का समय संधि के  लिए तय पाया गया । जबकि राजा इदारत जहां  के दोनों  सेनाधिकारी  अमर सिंह और मखदूम बख्श इस संधि के खिलाफ थे । इसी कारण अमर सिंह मोजीपुर क़िले में और मखदून बख्श मुबारकपुर कोट में रुक गए ।

राजा इदारत जहां नमाज़ ज़ुहर के बाद अपने ४० लोगो और  फ़साहत जहां के साथ संधि के लिए आम  के बाग़ में पहुँच गए जहां अँगरेज़ कमांडर पहले से मौजूद था । उस कमांडर ने मक्के के खेत के पीछे अपनी फ़ौज को छुपा रखा था और राजा इदारत जहां के साथ धोका किया जिसमे राजा फ़साहत जहां भी शामिल था । राजा के सारे कर्मचारी वहीँ क़ैद कर के फांसी पे लटका दिए गए और राजा इदारत जहां वहाँ से निकलने में  लेकिन आगे जा के पकड़े गए जिन्हे अंग्रेज़ों ने उस बाग़ से कुछ दूर एक स्थान पे फांसी दे दी और राजा इदारत जहां  १८५७ की क्रांति के पहले शहीद कहलाये ।  सत्य यही है की राजा इदारत जहां  ने १८५७ में अंग्रेज़ो से आज़ादी का बिगुल अपनी शहादत के साथ दिया । जब राजा इदारत जहां  को फांसी दी जा रही थी तो उन्होंने ने अपने धोकेबाज़ भाई फ़ज़ाहत जहां से कहा "भाई जान क्या कोई और  भी ख्वाहिश है "  ये अँगरेज़ तुम्हे कुछ नहीं देंगे ।

कब्र राजा इदारत जहां 
राजा इदारत जहां  के सेनापति अमर सिंह ने मोजीपुर  के क़िले से युद्ध किया और शईद हो गए और इस प्रकार वो आज़ादी की जंग के दुसरे  सिपाही कहलाये । मखदूम बख्श लड़ते लड़ते कहीं चुप गया और बच गया। इस लड़ाई में मोजीपुर क़िले और मुबारकपुर कोट को नुकसान  पहुंचा इसी लिए आज भी खंडहर की शक्ल में निशाँ मिला करते है ।

राजा फ़साहत जब अंग्रेज़ों से अपना इनाम मांगने गया तो अंग्रेज़ो ने उसे भी यह कह के फांसी दे दी की तुम जब अपने भाई के नहीं हुए तो हमारे वफादार कैसी हो सकते हो ।

माहुल में राजा मुज़फ्फर जो राजा इदारत जहां  का पुत्र था उसने बदला लेने के लिए १६००० सिपाहियों  बनायी जिसमे मखदूम बक्श भी शामिल थे । इस फ़ौज ने तिघरा नामक स्थान पे अंग्रेज़ो पे हमला कर दिया ।  अँगरेज़ फ़ौज घबरा गयी और बिखरने लगी । राजा मुज़फ्फरसन १८६० तक  अंग्रेज़ो से लड़ते रहे और अंत में आगरा के क़िले में क़ैद कर  दिए गए ।


 राजा मुज़फ्फर जहा ने क़ैद होने के पहले खानदान  की  महिलाओं को  खुरासो से नेपाल की तरफ भेज  दिया था और  जब वो आगरा से आज़ाद हुआ तो रुदौली में मीर हुसैन और शेर अली के यहां  शरण ली ।




सन १८५७ ई० की जन क्रांती मे जिनको फांसी दे दी और उनकी संपत्ती को ज़प्त कर लिया वास्तव में वही स्वतंत्रता की प्रथम क्रांतिकाारी और वीर सैनिक थे जिनपे आज भी भारतवर्ष को गर्व है ।
इन गौरवपूर्ण विभूतियों में राजा इदारत जहा , मेहदी हसन , राजा मुज़फ्फर ,दीवान अमर सिंह , ज़मींदार कुंवर पुर और इनके साथियो का नाम हमेशा अमर रहेगा ।

राजा इदारत जहां की संपत्ति पहले राजा बनारस, राजा जौनपुर और मौलवी करामात अली (मुल्ला टोला ) को दी गयी जिन्होंने इसे लेने से इंकार कर दिया । बाद में ये संपत्ति राय हींगन लाल, महेश नारायण, मीर रियायत अली ,मुंशी हैदर हुसैन, सैयद हसन, अली बख्श खा , मुंशी सफ़दर हुसैन ,मौलवी हसन अली ,मेरे मुहम्मद तक़ी ,अब्दुल मजीद मुंसिफ और मेरे असग़र अली को दे दी गयी ।

इत्र,चमेली का तेल की तरह अब तिल उद्योग भी जौनपुर में खतरे में |

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जौनपुर कभी इत्र ,गुलकंद और चमेली के तेल के लिए बहुत मशहूर रहा है| आज इनका उद्योग ना के बराबर रह गया है जिसका कारण इसे बनाने में लगने वाली कीमत का ना मिल पाना माना जाता है | आज बाज़ार में असली चमेली का तेल या इत्र बहुत कम ही देखने को मिलता है और जो भी बनता है वो जौनपुर के बाहर महानगरों और अन्य देशों में चला जाता है | मेहनत के बाद सही कीमत या मुनाफा ना मिले तो कोई भी उद्योग बंद हो सकता है | आज तिल उद्योग पे ऐसा ही खतरा मंडराने लगा है |


इस कारोबार से जुड़े लोग किसानों से तिल खरीदकर लाते है और गोमती नदी में धुलाई कर उन्हे वाराणसी की मण्डी में बेचकर अपना गुजर बसर करतें हैं। इस कार्य में लगे लोग पूरे कुनबे के साथ कड़ाके की ठण्ड में रात एक बजें से गोमती नदी के ठरते पानी में घुस कर तिल की सफाई करते है।जौनपुर में इस सर्द मौसम में गोमती के ठरते पानी में अपना खून पसीना बहा रहे है इन लोगो का बस एक ही मकसद है कि दो वख्त की रोटी का जुगाड़ करना। ये लोग कर्ज लेकर किसानों से तिल खरीदकर उन्हे खाने के लायक बनाने में अपने पूरे परिवार की जान जोखिम में डालकर इसे बाज़ार में बिकने लायक बनाते हैं |किसानों से तिलियों को खरीदने और कुटाई धुलायी करने के बाद बा मुश्किल इन गरीबो को दो बखत की रोटी मिलती हैं। इसके बावजूद ये बेचारे अपने पुश्तैनी कारोबार में लगे हुए हैं।



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सबका दर्द सुनाता पत्रकार लेकिन पत्रकारों का दर्द कौन समझेगा ?

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वास्तव में पत्रकारिता वह है जो तथ्यों की तह तक जाकर उसका निर्भिकता से विश्लेशण करती है और उसे जनता तक पहुंचाती है |जब हमारा देश गुलाम था तो हमने पत्रकारिता को निष्पक्ष और जनता की आवाज के रूप में बुलंद किया आज जब हम आज़ाद हैं तो हमारे शब्द गुलाम हो गए है क्यूंकि आज पत्रकारिता एक बड़े व्यवसाय का रूप लेती जा रही है | कभी जनता का इस पर पूर्ण विश्वाश हुआ करता था पर आज के समय में यह पूर्ण विश्वाश, अविश्वाश में परिवर्तित नजर होता आ रहा है| अभी तक हमारा परिचय मुख्यधारा की जिस कारपोरेट पत्रकारिता से है,वह अपने मूल चरित्र में राष्ट्रीय, पूंजी और विज्ञापन आधारित और वैचारिक तौर पर सत्ता प्रतिष्ठान के व्यापक हितों के भीतर काम करती रही है | आज भूमंडलीकरण के दौर की वास्तविक वैश्विक पत्रकारिता है जिसे अपने संकीर्ण बंधनों से बाहर निकलने का दु:साहस करना होगा | शायद हमारी पत्रकारिता का बदलता स्वरुप हमारे देश की आजादी और गुलामी के बीच की वो कड़ी है जो ऐसे हथकड़ी में बंध गयी है जिसकी चाभी कब मिलेगी इसका कोई पता नहीं है|




आखिर पत्रकार कर ही क्या सकते है क्योंकि वो भी संस्थागत किसी प्रोडक्शन और किसी मीडिया हाउस में कार्य करते है, और अपने द्वारा किये गये कार्य का मेहनताना लेते है इसलिए उन्हें भी वही करना होता है जो ऊपर से निर्देश दिए जाते हैं ,क्योंकि पत्रकार तो उनके आधीन होतें हैं ,पुरानी कहावत में कहा भी गया है जिसकी लाठी उसकी की भैंस | सीमित शब्दों में कहा जा सकता है की पत्रकारिता अब असहज हो गयी है क्योंकि एक धीरे -धीरे व्यवसाय का रूप ले चुकी है| जौनपुर के एक वरिष्ट पत्रकार श्री राजेश श्रीवास्तव जी का मानना है कि जनता को भी ये आज तय करना पड़ेगा की उसे क्या पढना और कैसी खबर चाहिए ? क्यूँ की आज अखबारों में वही छपता है जो बिकता है और यकीनन खरीदने वाली तो जनता ही है | राजेश श्रीवास्तव जी ने बताया की उन्हें अच्छी तरह से याद है की एक बार बिहार में एक साथ ४० किसानो ने आत्महत्या कर ली और यह एक बड़ी खबर थी जिसे जनता तक अवश्य पहुंचना चाहिए था लेकिन इस खबर के फ़ौरन बाद एक खबर आ गयी राखी सावंत का किसी ने चुम्मा ले लिया जो की हैडलाइन बन गयी और ४० किसानो की आत्महत्या की खबर दब गयी |



पत्रकारिता जिन पत्रकारों के दम पे चलती है हकीकत यह है की उनका दर्द कोई नहीं जान पाता | आज एक पत्रकार को सैलरी 10-१२ हज़ार से अधिक नहीं मिल पाती और दिन भर अपने खर्चे पे ख़बरों के पीछे भागता यह पत्रकार खुद नहीं जानता की उसकी भेजी कितनी खबर छपेगी या बिकेगी ,जिसका मेहनताना उसे मिलेगा | ध्यान देने की बात है की जो खबर नहीं बिकी या चैनलों या अख़बारों में नहीं चली उसके पीछे भी तो पत्रकार ने मेहनत दिन और रात का फर्क किये बिना की थी ? पत्रकार की समाज में बड़ी इज्ज़त है लेकिन जब उसका बच्चा मंहगे कोलेज में पढने की बात करता है तो वो एक बार यह अवश्य सोंचता होगा कि क्या मतलब है इस इज्ज़त का जो औलाद को बेहतर शिक्षा भी ना दिला सके |

मैं पत्रकारों की बड़ी इज्ज़त करता हूँ क्यूँ की देश की सीमा पे पहरा देते सैनिक और देश के भीतर पहरा देते पत्रकार में बहुत सी समानताएं है |

आपके सामने पेश है जौनपुर के वरिष्ट पत्रकार श्री राजेश श्रीवास्तव जी  से कुछ बात चीत जिन्हें सुनके आपको पत्रकारों के जीवन के बारे में बहुत कुछ जानने को मिलेगा | इसे एक बार अवश्य सुनें |.



लेखक एस एम्  मासूम


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जौनपुर में अज़ादारी की शान |

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जौनपुर अज़ादारी का अपना एक इतिहास है और शिया  मुसलमानों की आबादी लखनऊ के बाद यहाँ सबसे अधिक है | यहाँ एक से एक बड़े ऐतिहासिक इमामबाड़े और मस्जिदें मुग़ल और शार्की समय के मौजूद हैं इसीलिये यहाँ का मुहर्रम और चेहल्लुम दुनिया भर में मशहूर है | जौनपुर की अज़ादारी को अब ऑनलाइन जौनपुर सिटी डॉटइन के प्रयास से नयी वेबसाईट जौनपुर अज़ादारी डॉट कॉमकी शुरुआत के साथ किया जा रहा है |
इस वेबसाईट के द्वारा दुनिया भर में यहाँ की अज़ादारी का इतिहास, यहाँ के मशहुर इमामबाड़ों का इतिहास ,यहाँ की मशहूर सोअज़ और मर्सिया ,नौहा ,मजलिस और अज़ादारी का ख़ुलूस अब दुनिया तक आसानी से पहुंचाया जा सकेगा |अब यहाँ के अजादारो और अज़ादारी के अमन और भाईचारे के पैगामात दुनिया तक आसानी से पहुंचाए जा सकेंगे |जौनपुर का मशहूर मर्सिया, यहाँ का चेहल्लुम, सोअज़ और नौहे अब आप जब चाहें सुन सकेंगे | जौनपुर अज़ादारी के इस पेज को facebook से भी जोड़ा गया है जिससे आप सभी इसको likeकरके जुड़ सकते हैं|
वेबसाईट: http://www.jaunpurazadari.com

जौनपुर के कुछ मशहूर इमामबाड़े










जौनपुर में सात बादशाहों के मकबरे |

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जौनपुर में सबसे अधिक शार्की समय के बनाये हुए मकबरे बहुत अधिक देखने को मिलते हैं जिनमे से अधिकतर के बारे में केवल इतिहासकार ही बता सकते हैं | उनका नाम औ निशाँ लताश्ना मुश्किल केवल इस कारण से होता है की अब्राहिम लोधी ने उन्हें नष्ट कर दिया था और बाद में अब उनके केवल खंडहर या अधूरे और टूटे मकबरे ही बचे हैं | इन्ही में से बहुत मशहूर है सात बादशाहों की कब्रें जो बड़ी मस्जिद से सटे हुए कब्रिस्तान में मिलती हैं |




यह इलाका अटाला मस्जिद से तकरीबन ९०० यार्ड की दूरी पे  आज भी मोजूद है | यहाँ पे शार्की सुल्तान इब्राहीम शाह ,उनकी पत्नी,  सुलतान फ़िरोज़ शाह जिसने जौनपुर बसाया के बेटे शाहजादा नासिर जहां मालिक ,हुसैन शाह और उनके परिवार इत्यादि की कब्रें मौजूद हैं | कभी इन क़ब्रों के ऊपर रौज़े बने थे जिनकी सजावट देखते ही बनती थी लेकिन इब्राहीम लोधी के तोड़ने के बाद आज यहाँ ७२ कब्रें ही दिखती हैं | जौनपुर जंक्शन स्टेशन से यह जगह केवल एक किलोमीटर की दुरी पे है | इस स्थान पे आप जौनपुर जंक्शन से सब्जी मंदी, कोतवाली , नवाब युसूफ रोड होते हुए बड़ी मसजिद और इन सात मकबरों तक पहुँच सकते हैं |


तुमने वतन को छोड़ा था या वतन ने तुमको छोड़ा था |

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मैं हमेशा कहा करता हूँ कि वतन से दूर वतन की याद बहुत आती है और इस बात की सच्चाई  केवल वही जान सकते हैं जो वतन से दूर अपनी कर्मभूमि बनाय हुए हैं | किसी शायर ने इसी बात पे कुछ बेहतरीन बातें कहीं हैं जिन्हें आप अवश्य सुनें |


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जौनपुर और हिन्दुस्तान की आजादी |

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बचपन से 15 अगस्त को आज़ादी दिवस मानते आये हैं | राष्ट्रगान गाना और आज़ादी के शहीदों को याद करना अधिकतर हिन्दुस्तानियों के जीवन का एक हिस्सा रहा है | बात यह सोंचने की है कि हिन्दुस्तान कितनी बार गुलाम हुआ और कब आज़ाद हुआ ? घबराएं मत हिन्दुस्तान के इतिहास की गहराई में नहीं जाऊंगा | हाँ यह अवश्य सोंचता हूँ की क्या मुगलों ने हिन्दुस्तान पे हमला करके इसे गुलाम बनाया था ? यदि हाँ तो क्या अंग्रेजों ने हिन्दुस्तान को आज़ाद करवाया मुगलों की ताक़त को कम करके ? ज़ाहिरी तौर में तो ऐसा ही दिखता है | लेकिन यह कैसे आज़ादी मिली हिन्दुस्तान को को कि आज़ाद करवाने वाले अंग्रेजों ने मुगलों से भी अधिक ज़ुल्म हिन्दुस्तानियों पे करना शुरू कर दिया | यह ज़ुल्म इतना बढ़ा की जो हिन्दुस्तानी मुगलों के समय में चुप था ,अंग्रेजों से बगावत पे उतर आया और इतने जोश के साथ उतरा कि अपने धन की अपने पतियों तक की क़ुरबानी दे डाली | यह आजादी की ऐसी जंग थी जिसमे हिन्दुस्तान के हिन्दू और मुसलमानों ने मिल के संघर्ष किया और कुर्बानियां दी | और यह संघर्ष इतना बढ़ा की अंग्रेजों को देश से भागना पड़ा लेकिन जाते जाते हिन्दुस्तान को बाँट गए और हमेशा के लिए भारत के दुश्मनों के हाथ में इंसानी दिलों में नफरत फैलाने का एक हथियार दे गए जिसका इस्तेमाल आज भी हिन्दुस्तान और पाकिस्तान दोनों जगह किया जा रहा है | मुगलों से आज़ादी का जश्न तो नयी गुलामी के कारण हिन्दुस्तान वासी नहीं मना सके लेकिन अंग्रेजों से आजादी तो हमने खुद ली थी और उसे मान्य भी ज़ोर शोर के साथ जाता है |

हर देशप्रेमी 15 अगस्त के दिन को शहीदों की दी हुई कुर्बानियों को याद करता है आजादी की ख़ुशी मनाता है और कुर्बानियों को याद करके दुखी भी होता है | मैं अक्सर सोंचता हुआ की हिन्दुस्तान को आज़ाद करवाने वाले शहीदों के घरवालों का हाल आज बदहाल क्यूँ है ?



जौनपुर के पत्रकार श्री राजेश श्रीवास्तव जी बताते हैं कि स्वतंत्रता की सुगंध है वो उन्हे युगों का प्रणाम बोलो। इसी आस्था और वि”वास के साथ जौनपुर के हजारों लोग धनियाॅमऊ पुल के पास स्थिति शहीद स्तंम्भ पर अपना श्रद्वासुमन अर्पित करते हैं। ये उन शहीदो का स्तंम्भ जिन्होने 16 अगस्त 1942 को अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ विगुल फूकते हुए बदलापुर थाने पर तिरंगा लहराने जा रहे थे। इसी बीच धनियॅामऊ पुल को तोड़ते समय अंग्रंेजी सेना से मुडभेड़ के दौरान भारत माँ के चार वीर सपूत शहीद हो गये और दर्जन भर से अधिक लोग जख्मी हो गये।

वाराणसी-लखनऊ हाईवे पर स्थिति यह पुल स्वतंत्रता आन्दोलन का प्रमुख गवाह हैं। 16 अगस्त 1942 को आजादी के दीवानो ने सर पर कफन बांधकर बदलापुर थाने पर तिरंगा लहराने के लिए जा रहे थे। अंग्रेजी फौजो को रोकने के लिए पहले भारत मां के वीर सपूतो ने इस पुल को तोड़ना शुरू कर दिया था , इसी बीच गोरो की फौजे वहां पहुंच गयी। आजादी के दीवाने विना कोई प्रवाह किये अपने अभियान में आगे बढ़ते गये। इसी बीच अग्रेजो ने धुवांधार फायरिंग शुरू कर दिया। इस गोलीबारी में टोली के लिडर जमींदार सिंह, रामनंद, रघुराई और राजदेव सिंह मौके पर ही शहीद हो गये और दर्जन भर से अधिक लोग घायल हो गये।
देश की आजादी में अपने प्राणो की आहूती देने वाले रामनंद और रघुराई के घर और गांव की हालात गुलामी ही जैसा बरकार हैं। शहीद के परिवार वाले दूसरे के खेतो में कड़ी मेहनत करके अपना पेट पाल रहे हैं। उधर विधायक और मंत्री ने शहीदों के नाम पर शहीदी स्तंम्भ और मैरेज हाल तो बनवा दिया है लेकिन विजली पानी और सड़क जैसी मूल भूत सुविधाओं से मरहूम ही रखा।
शहीदो की चिताओं पर लगेगे हर बरस मेले वतन पर मरने वालो का यही निशा बाकी होगा। इस नारे के साथ हम हर 15 अगस्त और 26 जनवरी को तिरंगा फहराकर आजाद होने का गर्व करते हैं क्या यह गर्व आज तक शहीद रमानंद और रघुराई के परिवार वाले महसूस कर पाते है यह किसी ने पता लगाने की जहमत नही उठाई हैं।


जौनपुर जिले के स्वतंत्रता आन्दोलन का इतिहास स्व0 पंडित सूर्यनाथ उपाध्याय की चर्चा किये वेगैर अधूरा है। अंतिम साँस तक समाज के विकास की सोच रखने वाले पंडित जी जनपद में काग्रेस के केद्र बिंदु रहे। वह अपने जुझारू तेवर , ओजपूर्ण भाषण एंव तेज - तर्रार नेतृत्व के लिए चर्चित रहे। उपाध्याय जी पुरे जीवन भर समाज के दबे कुचले , गरीबो की लड़ाई लड़ते रहे। वे इसी लिए गरीबो के मसीहा कहे जाते थे।



श्री उपाध्याय का जन्म 16 जनवरी 1918 दिन बुधवार को सिकरारा थाना क्षेत्र के देह्चुरी गाँव में हुआ था। श्री उपाध्यायमात्र 20 वर्ष की आयु में स्वतंत्रता के आन्दोलन में कूद गये थे। उन्होंने ने पहले भगत सिंह को अपने खून से पत्र लिखा कर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के सदस्य बने। 1938 में ट्रेनिगं लेकर व्यक्तिगत सत्याग्रह में भाग लिया और 18 मार्च 1941 को अग्रेजी हुकूमत ने गिरफ्तार कर लिए। 9 माह की कठोर कारावास भी इनके हौसला कम नही हुआ। इस जेल यात्रा में जौनपुर और चुनार जेल में रहते हुए जबर्दस्त क्रांतिकारी संगठन बनाया यही सेना सन 1942 के आन्दोलन में तख्त पलटने में मुख्य भूमिका निभाई थी। बरईपार - सिरसी के शिव मंदिर में जनपद के क्रांतकारियों की बैठक बन्दूको , रिवाल्वरो , पिस्तौलो एंव भाला गडासो की गगन भेदी टंकार के बीच हुई। जिसमे अपने नेतृत्व क्षमता तथा अदम्य शाहस के बलपर सूर्यनाथ जिले के कमांडर चुने गये। इस जत्थे में लगभग पांच सौ नवजवान 150 रिवाल्वरो , पिस्तौलो के साथ प्राणों को न्यवछावर करने के लिए निकल पड़े थे। इस जथे का आतंक इतना था कि अग्रेजी और दो - चार थाने मुडभेड करने से कतराते थे। नेदरसोल कमिशनर ने कई बार पकड़ने के लिए अभियान चलाया लेकिन असफलता ही हाथ लगी। इस जत्थे ने कई बड़े कांड किये। मछलीशहर तसील पर धावा बोला , सुजानगंज थाना लूटा, सिकरारा में राजा बनारस की छावनी को तहसनहस किया साथ ही कई गोदाम और डाकखाना भी लूटा कर अग्रेजी हुकूमत के नाक में दम कर दिया था। अग्रेजी शासको ने सूर्यनाथ और उनके साथियों को गोली से उड़ाने का फरमान जारी कर दिया साथ में दस हजार रूपये इनाम भी घोषित किया गया। 16 अक्टूबर 1942 को कुल्हनामऊ डाकखाना लूटने के बाद कुछ देश द्रोहियों कारण श्री उपाध्याय उनके साथी बैजनाथ सिंह , दुखरन मौर्य , उदरेज सिंह , शिवब्रत सिंह और दयाशंकर के साथ गिरफ्तार हुए। इन लोगो घर अग्रेजो ने फूंक दिया। सूर्यनाथ को 30 दिसम्बर 1942 को 7 वर्ष की कठोर सजा सुनाई गई और 100 रूपये अर्थ दण्ड भी लगाया गया। इसके बाद मडियाहूँ के एक केस में 9 जनवरी 1943 को दो साल की सजा हुई। कुल मिलकर 24 वर्ष की कठोर कारावास श्री उपाध्याय जी को हुआ था। सजा काटने के लिए फरवरी 1943 को बनारस सेंट्रल जेल भेजे गये। इस जेल में 15 दिनों तक अमरण अनशन किया और 6 अप्रैल 1943 को हरदोई रेलवे स्टेशन पर भारत माँ का नारा लगाने के कारण पुलिस से तीखी नोकझोक हुआ गाली देने पर उपाध्याय जी ने एसपी जेटली का सर फोड़ दिया। जिसके कारण 38 डी आई आर का मुकदमा चला और बरेली जेल से वापस हरदोई लाये गये। इस जेल में हथकड़ी और बेडी लगने के बावजूद जेल के सिखचो को काटकर भागे किन्तु अंतिम दीवाल पर पकडे गये और इतना पिटे गये कि उनका शरीर मांस का टुकड़ा बनकर रह गया। जेल में बंद साथियों ने उन्हें मरा समझकर जेलों शोक सभाए हुई। लेकिन 12 दिन बाद उन्हें होश आ गया था।

साभार श्री राजेश श्रीवास्तव

जौनपुर में नाचते मोर आप भी देखें

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मोर को दुनिया भर में सबसे सुंदर पक्षियों में से एक माना जाता है। इसे पक्षियों का राजा भी कहा जाता है। अपने सिर पर मुकुट के समान बनी कलगी और रंग-बिरंगी इंद्रधनुषी सुंदर तथा लंबी पूंछ से यह जाना जाता है। आंख के नीचे सफेद रंग, चमकीली लंबी गर्दन इसकी खूबसूरती में चार चांद लगाते हैं। बारिश के मौसम में बादलों से भरे काले आकाश के नीचे जब यह अपने पंख शानदार तरीके से फैलाकर नृत्य करता है तो कई मोरनियों के दिलों पर राज करता है। मोर के इन्हीं गुणों के कारण भारत सरकार ने 26 जनवरी 1963 को इसे राष्ट्रीय पक्षी घोषित किया।भारत में मोर हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, वृंदावन और तमिलनाडु में ज्यादा पाए जाते हैं। मोर दुनिया भर में उड़ने वाले विशाल पक्षियों में से एक है। नर मोर की लंबाई उसकी पूछ सहित लगभग साढ़े 5 फीट तक होती है, जिसमें उसकी पूंछ ही उसकी कुल लंबाई की तकरीबन 60 प्रतिशत होती है। ऊंचाई के हिसाब से देखा जाए तो आमतौर पर मोर 2 फीट ऊंचे होते हैं, लेकिन जब वे अपने पंख फैलाते हैं तो उनकी ऊंचाई बढ़ जाती है।



यह माना जाता है कि मोर सबसे पहले भारत, श्रीलंका और उसके आसपास के देशों में पाए गए, जिन्हें भारत में अंग्रेजी हुकूमत के दौरान अंग्रेज पूरी दुनिया में ले गए। आज मोर की मुख्य रूप से दो प्रजातियां पाई जाती हैं- नीला मोर भारत, नेपाल और श्रीलंका में और हरा मोर जावा, इंडोनेशिया तथा म्यांमार में पाया जाता है। इसके अलावा अफ्रीका के वर्षावनों में कांगो मोर भी मिलते हैं।मयूर परिवार में मोर एक नर है और मादा को मोरनी कहा जाता है। इनमें मोर आकार में अधिक बड़े और आकर्षक होते हैं। इसका शरीर चमकदार नीले रंग का होता है, जबकि मोरनी का शरीर ब्राउन रंग का होता है और उनके पास मोर के समान आकर्षक पूंछ नहीं होती। मोर की 200 लंबे-लंबे पंखों वाली शानदार पूंछ होती है, जिस पर नीले-लाल-सुनहरी रंग की आंख की तरह के चंद्राकार निशान होते हैं। ये अपनी पूंछ धनुषाकार में ऊपर की ओर फैलाकर नाचते हैं।



नाचते समय परों के मेहराब पर ये निशान बहुत अधिक मनमोहक लगते हैं। बारिश होने से पहले नर मोर नाचना आरंभ कर देते हैं। ऐसा माना जाता है कि मोरों को बारिश का पूर्वाभास हो जाता है और वे खुशी में नृत्य करते हैं। मोर कई बार मोरनी के साथ रोमांटिक नृत्य भी करते हैं। ऐसा माना जाता है कि मोरनियां मोर के आकार, रंग और पूंछ की सुंदरता से बहुत आकर्षित होती हैं। मोर को गर्मी और प्यास बहुत सताती है, इसलिए नदी किनारे के क्षेत्रों में रहना इसे भाता है|



जौनपुर में मोर बहुत अधिक पाए जाते हैं क्यूंकि यहाँ से गोमती नदी हो के गुज़रती है और दरिया के आस पास के इलाके में अभी भी पेड़ों के बगीचे और खेती होती है | जौनपुर में सई नदी के किनारे दस बीघे के जंगल में पांच-छह वर्ष पूर्व सैकड़ों की संख्या में मोर बेखौफ टहलते मिल जाते थे किंतु अब वह स्थिति नहीं रह गई| बहुत से जगहों में आबादी बढ़ने से इनके शिकार की भी खबरें आया करती है जो एक चिंता का विषय है |



चलिए आप भी देखें जानपुर में सितम्बर -अक्टूबर में नाचते मोर |

जौनपुर एसपी राजूबाबू सिंह को हटाकर शिवशंकर यादव को यहां तैनाती किया है।

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 जौनपुर। उत्तर प्रदेश शासन ने आज भारी पैमाने पर आईपीएस अफरो का तबादला किया है। इस तबादले के आंधी में जौनपुर एसपी राजूबाबू सिंह को हटाकर शिवशंकर यादव को यहां तैनाती किया है। नये एसपी मौजूदा समय में लखनऊ पुलिस मुख्यालय में तैनात थे।



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